बाजुओं को मोड़कर तूफानों को तोड़ दूँ
एक करारी चीत्कार से धरा-गगन को जोड़ दूँ
असत्य के कांच को पल भर में फोड़ दूँ
बहती हुई नदी की धारा को मोड़ दूँ !
न मुझे मंजिल का डर न मुझे चाहिए सहारा
विजयी रहा है वो अगर अब तक कभी न मैं हारा !
एक फूल की चाह माली के लिए बहुत
एक पेड़ की छांव राही के लिए बहुत
एक बूँद स्वाति की पपीहे के लिए बहुत
एक झलक चाँद की चकोर के लिए बहुत !
आते हैं जाते रहें संग्राम रहा है यह सारा
विजयी रहा है वो अगर अब तक कभी न मैं हारा !
प्रकाश के प्रारम्भ से ही तम बुझ जाता है
चलायमान ही जग में सर्वश्रेष्ठ पाता है
एक गया तो क्या अवसर दूजा भी आता है
परिवर्तन का गति से रहा हमेशा नाता है !
कोलाहल मन में है बसा अटल एक ध्रुव तारा
विजयी रहा है वो अगर अब तक कभी न मैं हारा!!!
-अमर कुशवाहा
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