दिल में
ग़र ग़म
हो चेहरा कभी न
खिलता है
भले ही
भीड़ में
कोई हर
किसी से
मिलता है!
मेरे कागज़ पर उतरीं कुछ आड़ी-तिरछी रेखायें
क्यों-कर
कहते हैं
सारे अक्स तेरा निकलता है!
देख नहीं पाता कुछ
भी प्रेम की हलचल लहरों में
बाहें खुद
ही खुल
जाती हैं
मन तेरी ओर चलता है!
कल ही
देखा था
मैंने एक
स्वप्न अचानक भोर में
तेरा न
होना पास
मेरे बस
ख्याल यही
खलता है!
जाने कितनें भूल-भुलैयें जीवन के
पथ पर
‘अमर’
जिस रस्ते आते तुम
हर दीप
उसी पर
जलता है!
-अमर कुशवाहा
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