वक्त की निरंतर भाग-दौड़ के बीच
नैतिकता का अवमूल्यन होता देख
मानवता पर भारी पड़ता पुरुषार्थ
संवेदनाओं के अधर कांपते से हैं!
रात की बाहों में दिनों के उजाले
दृष्टि-पटल पर पड़ी मैली सी चादर
व्याख्यानों के उत्सर्ग से उपजा प्रश्न
विवेचना के मूल को ढांपते से है!
जब भी सड़क फटती है अचानक
व्यवहारों में सदियों का परिवर्तन
विद्यननता की ओछी चाल
वैचारिक ऊंचाइयों को भांपते से हैं!
सुबह से विद्यमान प्रकाश का शोर
बरगद से लिपटी लट में अपनत्व का जोर
समस्त उर्जा को केंद्रित करने की होड़
-अमर कुशवाहा
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