Friday, June 24, 2016

प्रेम

प्रेम!

तुम यथार्थ नहीं हो

केवल निरीह

कवि की थोथी कल्पना!!

 

जब मन मरू हुआ

थे तुम भी मृतप्राय

मैं तब भी था उतना प्यासा

जितना अब सागर में हूँ!!

 

टूटता देखा है तुम्हें

कभी संस्कारों में

कभी विजाति के नाम पर

कभी सजाति के नाम पर!!

 

जहाँ तक भी दृष्टि में हो

पाया है तुम्हें लहूलुहान

तुम क्या औरों को जीवन दोगे

तुममें जब कोई साँस नहीं!!

 

कवि की थोथी कल्पना!

-अमर कुशवाहा

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