Tuesday, June 21, 2016

चलायमान

एक बार यूँ ही चलते कुछ दूर चला गया था
देखा जो मुड़ के पीछे सूरज भी ढल गया है
रस्ता बड़ा कठिन था पग साथ न दे रहे थे
आँखों में देखा अपने मैं खुद भी जम गया था !


हाथों ने जब झिंझोड़ा कुछ गति तब मिली थी
अगल-बगल कदम के जर्जर काया भी पड़ी थी
तूफां ने मुझको रोका बादल ने मुझको टोका
पहचान में इस बार मिला था उनको धोखा !


आगे बढ़े दो कदम पत्थर से मैं भिड़ा था
इस बार मेरा पाला चट्टान से पड़ा था
उसको तोड़-तोड़ मैं खाई को भर रहा था
अपने चुने डग को मैं चौड़ा कर रहा था !


लक्ष्य पर पड़ी नजर मग में कामिनी खड़ी थी
इस बार कि जटिलता कुछ ज्यादा ही बड़ी थी
स्पर्श उसका मुझसे लक्ष्य धुंधला सा गया था
नयनों में उसका सागर मैं डूब सा गया था !


मन मेरी इच्छा के विपरीत जा रहा था
मस्तिष्क के अंदर चक्रवात पनप रहा था
विद्रोह किया उसने लक्ष्य फिर मुझे दिखा था
तोड़ के सारे बंधन मैं फिर से चल चुका था!!!!


-अमर कुशवाहा

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