जितने घर उतने चिराग हैं
दामन छोटा बड़े दाग हैं
खुदगरज तुमने सोचा है कभी
दिल में अरमान है कुछ हमारे भी
चेतना की हर सतह पर
धूल मौसम डालता है
गरजता है
बरसता भी है
उसकी बातें हीं अलग हैं
शायद यह इक्कीसवी सदी है
फिर भी
दाँव पर द्रोपदी हैं
बस खींच के खाल
बहुरूपियों का
चील-कौवों को छोड़ दीजिए
फिर देखिये
हर जगह होगा यही चरितार्थ
कि
कलयुग में आज भी
कुछ नहीं बदला है!
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