Tuesday, June 21, 2016

अनोखी मुस्कान

भावनाओं के दर्पण का ज्वार जब भी चरम पर पहुँचता है
तो लगता है जैसे कुछ अंदर ही अंदर बिखर रहा है
कुछ सपने टूटते हैं तो कुछ पनपी चाहतें आहत होती हैं
फिर भी दर्पण के चेहरे पर अनोखी मुस्कान क्यूँ है?

बहते हुए अपनों के किनारे धुंध भरी धरा के बीच जा फंसते है
और यह ज्वार का समय-चक्र हमारे धरातल को चिर-विलीन करता है
बाहर अडिग इच्छाशक्ति का चट्टान घाव खाकर भी अस्तित्व को रोकता है
फिर भी दर्पण के चेहरे पर अनोखी मुस्कान क्यूँ है?

इस अविचल जल के शांत मन में चाँद कि परछाइयाँ विजय का प्रतीक है
पर लहरों के वेग से परछाइयाँ अक्सर धुला करती हैं
ख्यालों का अंबर भी डगमगाता सा प्रतीत होता है
फिर भी दर्पण के चेहरे पर अनोखी मुस्कान क्यूँ है?

बारिश के छींटे और बिजली कि तड़पन मन को कचोटती हैं
बादल भी रह-रह कर आघातों पर करुण क्रंदन करता है
पर दूर,कहीं दूर ठोकर खाता हुआ पत्थर ढलान का इन्तजार करता है
उसने देखा है दर्पण के चेहरे पर अनोखी मुस्कान खिली है!!!

-अमर कुशवाहा

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