Tuesday, November 17, 2020

रेल की पटरी

दूर तक छितरी हुयी ख़ूब अँधेरी रात हो
एक लंबा सफ़र हो और तुम्हारा साथ हो!

दिखता नहीं कुछ भी पर तुमको ढूँढ लूँगा
एक सिरे को पकड़ कर ग़र कभी बात हो!

बिना कहे भी जो हाल-ए-दिल जान ले
ऐसे जहाँ से हर सुबह  मेरा आद़ाब हो!

इस उम्र का क्या बस गुज़रती जायेगी
ग़र रोकने वाला न कोई ज़ज़्बात हो!

रेल की पटरी से निकले तुम भी 'अमर'
फ़िर मिलन का ख्व़ाब कैसे आबाद हो!

Tuesday, October 20, 2020

रिश्ते-नाते

बस यही चूक रह गयी इस ज़माने में
मुहब्बत भूल बैठे लोग आजमाने में!

जरा सी हूक़ पर रसनाई बिखेर देते थे
वो कलम खो गयी कहीं अब फ़साने में!

सब बेहयाई पर जो जुबाँ ख़ामोश रही
वही उस्ताद बन बैठे हैं अब सताने में!

जो पत्ते जलने पर केवल हवा ही देते थे
वही हाकिम बने हैं अब मुझे बचाने में!

दर्द परेशां करता रहा सारी रात 'अमर'
एक उम्र सी क्या गुज़री रिश्ते निभाने में!

-अमर कुशवाहा

Friday, October 9, 2020

अर्धांगिनी

नया नहीं कुछ पुराना है तुमसे
साँसों का एक तराना है तुमसे
बहती हुयी दरिया के संग बहूँगा
तुमसे ये हर पल मैं तो कहूँगा
तुम ही हो सुबह का कँवल
तुम ही मेरी पहली ग़ज़ल!


तुम हर पल यूँ गुज़रते नहीं थे
तुम बन घटा भी बरसते नहीं थे
पहली नज़र में न तुम थे भाये
मुझको तेरे न घेरे कोई साये
पर चाहा है जबसे अज़ल
तुम ही मेरी पहली ग़ज़ल!


बातों का एक सिलसिला बन पड़ा था
राहों का एक काफ़िला बन पड़ा था
चाँदनी भी आकर सुलाती थी हमको
आ ठंडी हवा फ़िर जगाती थी हमको
न था जिंदगी में ख़लल
तुम ही मेरी पहली ग़ज़ल!


इज़हार-ए-वफ़ा जब मैंने किया था
इक़रार-ए-वफ़ा तब तुमनें किया था
हम तुम फ़िर ऐसे जुड़ने लगे थे
परिंदों के माफ़िक उड़ने लगे थे
ख़्वाबों का बनाया एक महल
तुम ही मेरी पहली ग़ज़ल!


-अमर कुशवाहा

Saturday, September 12, 2020

उलझे मसले

उलझे ही रहे मसले भी भुलाने होंगे
वक़्त के शाख़ से पत्ते भी चुराने होंगें!

एक शिद्दत भरी निग़ाह ही काफ़ी होती
अब उसे पूरी दास्तान भी सुनाने होंगे!

वो आव़ाज जिससे ख़ामोशी बिछ जाये
ऐसे ज़ज्बात अनचाहे भी छुपाने होंगे!

इंसान सही-गलत में भला परेशान क्यों रहे?
ख़ुदा को अब नयी राह भी सुझाने होंगे!

दहलीज तक पहुँच ग़र पाँव रुक जायेअमर
ऐसे रिश्तों के तो बंधन भी पुराने होंगे!


-अमर कुशवाहा

Friday, August 14, 2020

अ-परिवार

वो जो रांझे की हीर थी

उसकी न कोई तदवीर थी

कट-मर जो चली गयी

मेरी नज़र में वह वीर थी!

 

राधा-कृष्ण को मानते सब

प्रेम की पीर को जानते सब

यदि घर में कहीं प्रेम दिखा

तलवार निकाल तानते सब!

 

सब कहते हैं कि मधुमास है

पर मिलता कहीं न समास है

तोड़ता है अब जोड़ने वाला

बस यही बड़ा विरोधाभास है!

 

राखी थी बंधी उन हाथों पर

जो थे बरसे उसके तन पर

रक्षक बनना प्रण जिनका

काट रहे कुल्हाड़ी बनकर!

 

थे भाई और जनता कुल नौ

किया बदन के टुकड़े पूरे सौ

कुछ बोटी व रक्त दिखा तब

तडके जब फटने लगा था पौ!

क्या प्रेम इतना बड़ा पाप है?

फ़िर जनता क्यों चुप-चाप है?

उन टुकड़ों पर थूका जिसने

लड़की-लड़कों का ही बाप है!

 

सोचा! माँ की क्या ही छाती है?

किन पापों का फल पाती है?

ममता ने देखा, भस्म हो गयी

जब माँ पूरी-खीर पकाती है!

 

तब चपला जा कौंधी मेघ पर

गिर-गिर पड़ती आ धरती पर

क्यों प्रकृति न हो रौद्र भला

रांझे-हीर की चीत्कार पर?

 

हे मानव! अब सुन ध्यान से

चमकी वाणी आसमान से

सागर की लहरें रोक सका

कोई बना कर ऊँची बाँध से?

 

आदम-हव्वा के जमाने से

श्रद्धा-मनु के ठिकाने से

ईश्वर भी क्या रोक सका है

उस वर्जित फल को खाने से?

 

भूल गये क्यों मेरा रूप?

मुझसे ही मिलती छाँव-धुप

मैंने थी हँसती सृष्टि बनायी

तुम क्यों बन बैठे अंध-कूप?

 

हवा का बहना ही तय है

झरने का गिरने में ही लय है

है प्रेम ही जग का बीजमंत्र

स्वीकार में फ़िर क्यों भय है?

 

तुम टोकोगे वह अड़ जायेगा

तुम रोकोगे वह बढ़ जायेगा

यदि रिश्तों से प्रेम रूठ गया

तुम काटोगे वह लड़ जायेगा!

 

बहुत हुआ अब तू बस कर

स्वाभाविक है स्वीकार कर

झूठे नाक के भेद-भाव में

न रिश्तों को शर्मशार कर!

 

यदि तू अब भी न पछतायेगा

तो एक दिन ऐसा पल आयेगा

बोटी और गिद्ध ही पसरे होंगे

मानव धरा पर न रह जायेगा!

 

-अमर कुशवाहा

 

Saturday, July 25, 2020

अनकहे अल्फ़ाज


ख़्वाबों के टूट जाने का अपना भरम होता है

किसको कितना मिला अपना करम होता है!


जरा फ़रेब पर ही दिल बिखर जाता है

आख़िर शीशे का भी अपना धरम होता है!


कोई क़रार मगर राजदार ज़रूर है

सबका कोई अपना मोहतरम होता है!


कोई कैसे ख़ुद को रोके हर क़ज़ा से पहले

क़ातिल--निगाह का अपना शरम होता है!


जुबाँ तक आकर रुक जाये तो अच्छा हैअमर

अनकहे अल्फाजों का अपना मरम होता है!

-अमर कुशवाहा

Wednesday, July 22, 2020

पगडंडियाँ

एक लंबे अरसे से

राह तकती हैं पगडंडियाँ

बगल के खेतों ने अक्सर

उन्हें बिलखते ही देखा है!

 

!

आँसूं नहीं निकलते अब!

जब इंतज़ार की सीमा नहीं होती

सूख जाते हैं आँसूं अक्सर,

और बच जाती है केवल वेदना!

पर जब कभी भी वेदना का

पारावार चढ़ जाता है

तो निकल ही पडतें हैं आँसूं

और फ़िर धूल से मिलकर

चिपक पड़ते हैं

गाड़ियों के टायरों से!

 

पर इससे पहले कि पहुँच पायें

वो अपने प्रिय तक

हवा और धूप उन्हें सुखाकर

छोड़ देती है

किसी वीरान परती में!

कभी भूले से कुछ

पहुँच गये अपने मकाम तक,

तो अलग-थलग से दिखते हैं

चमकते संगमरमर पर!

और फ़िर उन्हें बुहारकर

फेंक आते हैं लोग

किसी गन्दी जगह पर!

 

एक समय था!

मैं भी लौटता था उन्हीं

पगडंडियों पर लोटने को

महाभारत के नेवले की तरह!

जो सुनहरा हो गया था!

 

मेरे गाँव की पगडंडी पर

बिखरी धूल में छिपी है

किसी की ममता,

त्याग और करुणा!

मैं भी सुनहरा हो गया था

उसी में लोट-लोट कर!

बस!

अब वहाँ लौट नहीं पाता!


-अमर कुशवाहा

Tuesday, June 30, 2020

तिलिश्म-ए-दुनियां

तुम्हारे तिलिश्म--दुनियां को  छूट जाना है

ये  जो   नाज़ा--क़लम  है   टूट  जाना  है।


हवाओं में  खड़े  किये हो  जो  ईबारतें नयीं

जम्हूरियत को एक दिन इनसे रूठ जाना है।


कहानियों  का  मुल्क़ है  संभावना गढ़े रहो

खौलता  पानी  है  बस  भाप  उड़ जाना है। 


पेट है  सिकुड़ा हुआ  और  उभरीं पसलियां

हाशिये पर है लहू उसको भी सूख जाना है।


आँधियों में चाह थी चिराग़ जलाने की 'अमर'

अब लड़खड़ाती राह  में  बहुत दूर जाना है।


-अमर कुशवाहा

Tuesday, June 16, 2020

और क्या होगा?

तुम्हारे शहर की गलियों का हाल क्या होगा?

जो हम नहीं वहाँ तो फ़िर ही और क्या होगा?

 

दरख्तों  के  दरकने   से  जो  दब  जाती  हो

ऐसी   सदा  से  फ़िर  ही   और  क्या  होगा?

 

बहुत  सुने   हैं  ज़न्नत- -हूर   के  क़िस्से

जो तुम नहीं वहाँ तो फ़िर ही और क्या होगा?

 

नश्तरों  से  जिसने  लकीरों  को  तराशा  हो

ज़रा  से  ज़ख्म  से  फ़िर ही और क्या होगा?

 

अल्फ़ाज़  ग़र  होंठों  तक आकर ठहर जाये

ऐसे  इक़रार  से  फ़िर  ही  और  क्या होगा?

 

जिसके  मिसरों   से   पलकें     डूबी  जायें

ऐसी  ग़ज़ल  से  फ़िर  ही  और  क्या  होगा?


सारी  रात  तेरी  याद  में  जलता  है  'अमर'

बुझते  दीये  से  फ़िर  ही  और  क्या  होगा?

-अमर कुशवाहा
   १६.०६.२०२०

Tuesday, May 19, 2020

ग़र लौट सको तो...

अब कैसे कहूँ क्या हाल हुआ  जब छोड़ गए थे तुम मुझको

बीतीं  सब  रातें  जगते  हुये  और  नींदों को हम तरसे थे

जिनके  बहने  से  था  तेरी   गलियों   में  सैलाब  आया

वो बादल नहीं मेरी आँखें थी जो जम कर उस दिन बरसे थे।

 

ख़ुशियाँ जो बिखरी कूट-कूट कर ऐसे कोई उसको लूट गया

जो जगमग था  वो  भोर का तारा  मानों अंबर से टूट गया

टूटे  काँच  के  ख़्वाबों  में  फिर  कुछ  ऐसे  तकरार हुआ

तेरे हाथों की मेंहदी मिली फ़िर हिना से हमें प्यार हुआ।

 

वो  दरिया  जो  बहता  रहता  अब उसमें कोई उफ़ान नहीं

जिस्म मेरा  पर मैं गुम हूँ  और ख़ुदी का कोई निशान नहीं

मैं अब भी  उसी चौखट पर हूँ  पर घर का कोई ध्यान नहीं

बस  ख़ामोशी  सुनता रहता हूँ  चूड़ी-पायल की अज़ान नहीं।

 

मन  मेरा  बंजर  सा  बिखरा  जबसे  है  तेरा  साथ  नहीं

सब - कुछ  है   दिखता   उजला  दिन  है  ये  रात  नहीं,

महुवा  की  टप - टप  है  और  सरसों  से पटी सारी धरती

याद  दिलाती  ओढ़नी  तेरी   और   तो  कोई  बात  नहीं।

 

एक  उम्र  अकेले  घिस - घिस  कर  मैंने  रेखायें तराशीं हैं

शेष  रह  गया जो फ़िर  भी वह मेरे  मन  की  उदासी  हैं

सपने  जो  संग  सजाये  तेरे  सब  रंग  भरना  है  उनमें

ग़र  लौट  सको  तो  लौट  आओ  आँखें अब भी प्यासीं हैं।

-अमर कुशवाहा

Thursday, April 23, 2020

तेरी दहलीज़

मुझे मालूम है कि तेरी दुनिया नहीं हूँ मैं 

तू  हीर हुयी तो क्या राँझा रहा हूँ मैं 

हुआ जब भी तेरा ज़िक्र तो मुझमें साँस आती है

मेरी राहें भी अक़्सर मुझे तेरे घर खींच लाती हैं 

 

तेरी रुसवाइयों  के चर्चे   ज़माने में  छिड़े फ़िर भी

ज़रा  सी  आरज़ू लेकर   अड़ा  हूँ  सामने अब भी 

तेरे दहलीज़ से वापिस ग़र मैं ख़ाली हाथ जाऊँगा 

भला  कैसे ये लाचारी मैं दुनिया को दिखाऊँगा?

 

  फ़ूल  हों   दामन  में   तो  काँटे  ही बिछा  देना 

  मन  करे  फ़िर  भी    ज़रा   सा   मुस्करा  देना 

मेरे पावों से रिसते रक्त हँसते ही रहते हैं 

यही हासिल--मुहब्बत है ऐसा लोग कहते हैं

 

यही क्या कम है  कि   उनकी गलियों से  गुज़रा है 

नूर--ज़न्नत  को  देख  कोई  क्या  ऐसे मुक़रा है?

तुझसे इतनी मुहब्बत है कि तुझे कोई तकलीफ़ दूँगा 

मेरे होने का ग़र ग़म है तो ये दुनियाँ छोड़ भी दूँगा

 

मेरे  मौला  रहम  करना    यहीं  क़ुर्बान  हो  जाऊँ 

उनके काले-घने  गेसूं  में   फ़िर  से  मैं छिप जाऊँ 

वहीं सूखूं, वहीं फूलूँ, वहीं उग-उग  कर  मैं आऊँ 

क़यामत तक ये दहलीज़ मग़र   छोड़ कर जाऊँ


-अमर कुशवाहा

Tuesday, April 21, 2020

तुम्हारा होना

फासला इतना रहे कि बुत-तराश हो जाऊँगा मैं

फ़ासला  ग़र  ज़्यादा बढ़ा  तो  काश हो जाऊँगा मैं।


चुप्पियाँ इतनी रहें कि तुम ही कुछ कहती रहो

चुप्पियाँ ग़र ज़्यादा बढ़ीं तो  ख़ाक़ हो जाऊँगा मैं।


अश्क़  इतने  ही  रहें  कि  तुम सिसकती सी  रहो

अश्क़ ग़र ज़्यादे बढे तो राख हो जाऊँगा मैं।


प्रेम  इतना  ही  रहे कि  तुम  बेफ़िक्र सी  रहो

प्रेम  ग़र  ज़्यादा  बढ़ा   तो  पाश  हो  जाऊँगा  मैं।


इबादतें  इतनी रहें कि  तुम  क़लमा रहोअमर

इबादतें  ग़र ज़्यादा बढ़ीं तो  आकाश हो  जाऊँगा मैं।

-अमर कुशवाहा