Thursday, April 23, 2020

तेरी दहलीज़

मुझे मालूम है कि तेरी दुनिया नहीं हूँ मैं 

तू  हीर हुयी तो क्या राँझा रहा हूँ मैं 

हुआ जब भी तेरा ज़िक्र तो मुझमें साँस आती है

मेरी राहें भी अक़्सर मुझे तेरे घर खींच लाती हैं 

 

तेरी रुसवाइयों  के चर्चे   ज़माने में  छिड़े फ़िर भी

ज़रा  सी  आरज़ू लेकर   अड़ा  हूँ  सामने अब भी 

तेरे दहलीज़ से वापिस ग़र मैं ख़ाली हाथ जाऊँगा 

भला  कैसे ये लाचारी मैं दुनिया को दिखाऊँगा?

 

  फ़ूल  हों   दामन  में   तो  काँटे  ही बिछा  देना 

  मन  करे  फ़िर  भी    ज़रा   सा   मुस्करा  देना 

मेरे पावों से रिसते रक्त हँसते ही रहते हैं 

यही हासिल--मुहब्बत है ऐसा लोग कहते हैं

 

यही क्या कम है  कि   उनकी गलियों से  गुज़रा है 

नूर--ज़न्नत  को  देख  कोई  क्या  ऐसे मुक़रा है?

तुझसे इतनी मुहब्बत है कि तुझे कोई तकलीफ़ दूँगा 

मेरे होने का ग़र ग़म है तो ये दुनियाँ छोड़ भी दूँगा

 

मेरे  मौला  रहम  करना    यहीं  क़ुर्बान  हो  जाऊँ 

उनके काले-घने  गेसूं  में   फ़िर  से  मैं छिप जाऊँ 

वहीं सूखूं, वहीं फूलूँ, वहीं उग-उग  कर  मैं आऊँ 

क़यामत तक ये दहलीज़ मग़र   छोड़ कर जाऊँ


-अमर कुशवाहा

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