Friday, August 14, 2020

अ-परिवार

वो जो रांझे की हीर थी

उसकी न कोई तदवीर थी

कट-मर जो चली गयी

मेरी नज़र में वह वीर थी!

 

राधा-कृष्ण को मानते सब

प्रेम की पीर को जानते सब

यदि घर में कहीं प्रेम दिखा

तलवार निकाल तानते सब!

 

सब कहते हैं कि मधुमास है

पर मिलता कहीं न समास है

तोड़ता है अब जोड़ने वाला

बस यही बड़ा विरोधाभास है!

 

राखी थी बंधी उन हाथों पर

जो थे बरसे उसके तन पर

रक्षक बनना प्रण जिनका

काट रहे कुल्हाड़ी बनकर!

 

थे भाई और जनता कुल नौ

किया बदन के टुकड़े पूरे सौ

कुछ बोटी व रक्त दिखा तब

तडके जब फटने लगा था पौ!

क्या प्रेम इतना बड़ा पाप है?

फ़िर जनता क्यों चुप-चाप है?

उन टुकड़ों पर थूका जिसने

लड़की-लड़कों का ही बाप है!

 

सोचा! माँ की क्या ही छाती है?

किन पापों का फल पाती है?

ममता ने देखा, भस्म हो गयी

जब माँ पूरी-खीर पकाती है!

 

तब चपला जा कौंधी मेघ पर

गिर-गिर पड़ती आ धरती पर

क्यों प्रकृति न हो रौद्र भला

रांझे-हीर की चीत्कार पर?

 

हे मानव! अब सुन ध्यान से

चमकी वाणी आसमान से

सागर की लहरें रोक सका

कोई बना कर ऊँची बाँध से?

 

आदम-हव्वा के जमाने से

श्रद्धा-मनु के ठिकाने से

ईश्वर भी क्या रोक सका है

उस वर्जित फल को खाने से?

 

भूल गये क्यों मेरा रूप?

मुझसे ही मिलती छाँव-धुप

मैंने थी हँसती सृष्टि बनायी

तुम क्यों बन बैठे अंध-कूप?

 

हवा का बहना ही तय है

झरने का गिरने में ही लय है

है प्रेम ही जग का बीजमंत्र

स्वीकार में फ़िर क्यों भय है?

 

तुम टोकोगे वह अड़ जायेगा

तुम रोकोगे वह बढ़ जायेगा

यदि रिश्तों से प्रेम रूठ गया

तुम काटोगे वह लड़ जायेगा!

 

बहुत हुआ अब तू बस कर

स्वाभाविक है स्वीकार कर

झूठे नाक के भेद-भाव में

न रिश्तों को शर्मशार कर!

 

यदि तू अब भी न पछतायेगा

तो एक दिन ऐसा पल आयेगा

बोटी और गिद्ध ही पसरे होंगे

मानव धरा पर न रह जायेगा!

 

-अमर कुशवाहा