Tuesday, August 9, 2016

श्रृंगार

श्रृंगार को तेरे मैं क्यों निहारूँ?

क्यों तन-मन तुझ पर वारूँ?

यदि धरा है स्वर्ग सी लगती

उसकी सुंदरता तुझसे ही है!

 

तेरी कोमलता से जग में फ़ूलों का विकास हुआ

उठकर गिरती पलकों से लज्जा का अवतार हुआ

नयनों से ही तेरे हिरणी चंचलता पाती है

हाथों के लहराने से बुलबुल राग सुनाती है!

 

तेरे यौवन से प्रेरित हो धूप हमेशा खिलता है

तेरी छाया से आकाश में इन्द्रधनुष निकलता है

तेरे केश से शिक्षा ले मेघ घटा बन कर आते है

तेरे क़दमों की आहट से धीरे से जल बरसाते हैं!

 

तेरे काया की बात ही क्या ब्रह्माण्ड में कोई जोड़ नहीं

खिले कपोल पर उजली लालिमा इसका कोई तोड़ नहीं

क्यों-कर कह दूँ कि रचने वाले ने तुझे बनाया है

तुझसे ही रचयिता ने जग में सुंदरता को पाया है!


-अमर कुशवाहा