Tuesday, May 19, 2020

ग़र लौट सको तो...

अब कैसे कहूँ क्या हाल हुआ  जब छोड़ गए थे तुम मुझको

बीतीं  सब  रातें  जगते  हुये  और  नींदों को हम तरसे थे

जिनके  बहने  से  था  तेरी   गलियों   में  सैलाब  आया

वो बादल नहीं मेरी आँखें थी जो जम कर उस दिन बरसे थे।

 

ख़ुशियाँ जो बिखरी कूट-कूट कर ऐसे कोई उसको लूट गया

जो जगमग था  वो  भोर का तारा  मानों अंबर से टूट गया

टूटे  काँच  के  ख़्वाबों  में  फिर  कुछ  ऐसे  तकरार हुआ

तेरे हाथों की मेंहदी मिली फ़िर हिना से हमें प्यार हुआ।

 

वो  दरिया  जो  बहता  रहता  अब उसमें कोई उफ़ान नहीं

जिस्म मेरा  पर मैं गुम हूँ  और ख़ुदी का कोई निशान नहीं

मैं अब भी  उसी चौखट पर हूँ  पर घर का कोई ध्यान नहीं

बस  ख़ामोशी  सुनता रहता हूँ  चूड़ी-पायल की अज़ान नहीं।

 

मन  मेरा  बंजर  सा  बिखरा  जबसे  है  तेरा  साथ  नहीं

सब - कुछ  है   दिखता   उजला  दिन  है  ये  रात  नहीं,

महुवा  की  टप - टप  है  और  सरसों  से पटी सारी धरती

याद  दिलाती  ओढ़नी  तेरी   और   तो  कोई  बात  नहीं।

 

एक  उम्र  अकेले  घिस - घिस  कर  मैंने  रेखायें तराशीं हैं

शेष  रह  गया जो फ़िर  भी वह मेरे  मन  की  उदासी  हैं

सपने  जो  संग  सजाये  तेरे  सब  रंग  भरना  है  उनमें

ग़र  लौट  सको  तो  लौट  आओ  आँखें अब भी प्यासीं हैं।

-अमर कुशवाहा