Friday, June 24, 2016

एक मुद्दत से

राह तू ही मंज़िल तुम ही हर पल कहते रहते हैं

जरा पूछो इन क़दमों से तेरी ओर चलते रहते हैं।

 

एक मुद्दत के बाद मिले हाल हमारा क्या होगा?

जरा पूछो इन दीवारों से जो केवल उजड़े रहते है।

 

वक़्त इन्तहाँ इंतज़ार ये सब हमको मालूम नहीं

जरा पूछो इन अश्क़ों से हरदम बहते रहते हैं।

 

इश्क़ सफल या असफल ये फैसला कौन करे?

जरा पूछो इन पलकों से सजदे में झुकते रहते हैं।

 

ख़्वाबों की नज़दीकी हकीक़त की ये दूरीअमर

जरा पूछो इन ख़ामोशी से कलमा पढ़ते रहते हैं!

-अमर कुशवाहा

रूप

कलयुगी कुरुक्षेत्र में ऐसे ही पल बीतें हैं

जितने मेरे चेहरे नहीं उससे ज्यादा शीशें हैं!

 

कब कहाँ किसको कैसे किस रूप में नजर आऊँ

रूप है मेरा एक केवल सबको ज्यादा दीखें हैं!

 

रंगरेज जरा रंग दे एक दीवार इस शीशे का

श्वेत सा चेहरा मेरा अब लगते मुझे तीखे हैं!

 

कैसे मिले वो रूप किस छाँव में ठहर गया 

धुप में झुलस कर जिसने हर युद्ध जीतें हैं!

 

थक गया ढ़ोते हुये चेहरा किसी और का अमर

समय लौटाओ रूप मेरा जो मेरी आँखों में दीखें हैं!

-अमर कुशवाहा

अनकही

भय से बाधित हूँ मैं
नहीं, डर नहीं है मुझे
किसी अस्त्र का
या फिर शस्त्र का
मैं डर गया हूँ
अपने हंसने की आदत से!!

जब भी ज्यादा प्रसन्न हुआ
ठीक उसी समय
भूत से निकल आतीं है
हजार समस्याएँ
छीन लेतीं हैं मेरी हंसी!!

अब तो हंस के भी
किसी से कोई बात नहीं कहता मैं
व्यंग बनकर निकलते हैं मेरे शब्द
बस तिलमिला उठते हैं
सुनने वाले भी
कहने वाला भी!!

बस ढूंढ रहा हूँ
कॉमिक्स के झूठे पात्रों
नागराज, ध्रुव, परमाणु,डोगा की कहानी
आखिर कहीं तो
सच जीत रहा है
काल्पनिक ही सही!!!

-अमर कुशवाहा

मैं भटकती आत्मा

ब्रह्मराक्षस कहो मुक्तिबोध का 

या समय के शोध का

मन के अतल गहराइयों में धँसा

मैं भटकती आत्मा!

 

दो क्षणों के बीच के अनगिनत क्षण

जाना समय के इस छोर से उस छोर तक

गिन रहा टिक-टिक-टिक घड़ी सा

मैं भटकती आत्मा!

 

दशों दिशा बस रक्त की दीवार है

घुट रहा दम प्यास से बेहाल है

मुर्क्षित पड़ा है होश में निढ़ाल सा

मैं भटकती आत्मा!

 

मार्क्स से संतुष्टि मिली

गांधीवाद ने दिया सहारा

इक्कीसवीं सदी में त्रिशंकु सा

मैं भटकती आत्मा!

-अमर कुशवाहा

मेरे कागज़ पर

दिल में ग़र ग़म हो चेहरा कभी खिलता है

भले ही भीड़ में कोई हर किसी से मिलता है!

 

मेरे कागज़ पर उतरीं कुछ आड़ी-तिरछी रेखायें

क्यों-कर कहते हैं सारे अक्स तेरा निकलता है!

 

देख नहीं पाता कुछ भी प्रेम की हलचल लहरों में

बाहें खुद ही खुल जाती हैं मन तेरी ओर चलता है!

 

कल ही देखा था मैंने एक स्वप्न अचानक भोर में

तेरा होना पास मेरे बस ख्याल यही खलता है!

 

जाने कितनें भूल-भुलैयें जीवन के पथ परअमर

जिस रस्ते आते तुम हर दीप उसी पर जलता है!


-अमर कुशवाहा

नर से नारायण तू बन

क्यों है तू रुक-रुक कर चलता रण से क्यों है पीछे हटता

खोल दे उर के सब बंधन नर से तू अब नारायण बन!

 

मृत्यु अगर निश्चित है तो जीवन-पथ भी सच्चा है 

काट पगों की हर जकड़न नर से तू अब नारायण बन! 

      
मत आस लगा सुख छाया की जीवन दुःख की ही सरिता है

दुःख में ही रमा ले मन नर से तू अब नारायण बन!


-अमर कुशवाहा

सत्य

मित्र मेरे!
समझा जिसको सत्य था तुमनें 
थे वह केवल तथ्य
कुछ शब्दों ने आकार लिया था
बस!

जो झंकृत कर सांसो को
वो शब्द निकलते
कुछ और प्रमाणित होते
उनमे जीवन की गंगा बहती!

तुम्हें  लगा कि तुमनें केवल
मेरे शब्द सुने हैं
पर इससे पहले कि पहुंचे
तुम्हारे कर्ण -पटल पर
हवा उनमें थी घुल-मिल बैठी!

हर-बार परीक्षा हो मेरी
वो भी शब्दों के आकारों से
स्वीकार नहीं है
बस झाँको मेरी आँखों में
जिसमें सबकुछ की तथता है!

-अमर कुशवाहा

ख्व़ाब

ख्व़ाब

कितनें ही रूप बदलें है

तुमने!!

 

पहले ख़्वाब ख़्वाब ही था

फिर हो गया कांग्रेसी!

लीग की दरख्तों से गुज़रकर

जनसंघी भी हुआ!!

 

ख्वाबों की फ़ेहरिस्त

और भी लंबी है

समाजवादी ख़्वाब,

कम्युनिस्ट ख़्वाब

बहुवादी ख्व़ाब!!

 

इतने सारे ख्वाबों में

भारत कहीं खो गया है

बस जाग रहीं हैं लाशें

इंसान कहीं सो गया है!

-अमर कुशवाहा

बापू

बिखेर रहा था दिनकर
उष्म-किरण पथ पर
नग्न हुए थे चरण मगर
हार गए एक मानव से !!


न हृष्ट-पुष्ट थी काया
न मखमल वस्त्रों की छाया
भारत की मिट्टी में जन्में
हार गए एक मानव से !!


गोली-गाली-गुस्से का
किया सामना तुमने अभय
जिनका रवि था कभी न डूबा
हार गए एक मानव से !!


-अमर कुशवाहा

आदमी

इस मशीनी युग में अब खो गया है आदमी

अपने कद से भी छोटा हो गया है आदमी!

 

ऊँगली जरा कटने पर पहले चीख लेता था

मौत से भी खूंखार अब हो गया है आदमी!

 

गिरने से पहले जो हाथ उसे संभाल लेते थे

रोते-हुए माँ-बाप को अब छोड़ गया है आदमी!

 

पहले कभी चाहे कोई तो उससे मिल सकते थे

चीन की दीवार जैसा अब हो गया है आदमी!

 

इंसानियत की दुहाई दुनिया दिया करती थी

शैतान जैसा अब तो कुछ हो गया है आदमी!

-अमर कुशवाहा

प्रेम

प्रेम!

तुम यथार्थ नहीं हो

केवल निरीह

कवि की थोथी कल्पना!!

 

जब मन मरू हुआ

थे तुम भी मृतप्राय

मैं तब भी था उतना प्यासा

जितना अब सागर में हूँ!!

 

टूटता देखा है तुम्हें

कभी संस्कारों में

कभी विजाति के नाम पर

कभी सजाति के नाम पर!!

 

जहाँ तक भी दृष्टि में हो

पाया है तुम्हें लहूलुहान

तुम क्या औरों को जीवन दोगे

तुममें जब कोई साँस नहीं!!

 

कवि की थोथी कल्पना!

-अमर कुशवाहा

कहीं नहीं फिर तुम हो

गुमसुम तनहा मैं बैठा  कि कहीं नहीं फ़िर तुम हो

है बिखरा नज़ारा चारों तरफ़ कहीं नहीं फ़िर तुम हो!

 

हो स्वप्न की कोई बात तो दिखते केवल तुम हो

जब पलकों से नीदें उतरी कहीं नहीं फिर तुम हो!

 

क्यों करते हो आँख-मिचौली मेरे इस सूने जीवन से

जब ढूँढा तुझको हाथ बढ़ाकर कहीं नहीं फिर तुम हो!

 

छाई नईं कोपलें जब पेड़ों पर लगता है कि तुम हो

अब पतझड़ फैला चारों ओर कहीं नहीं फिर तुम हो!

 

जब दिल से चाहो तो स्वप्न हकीक़त बन जातेअमर

अब याद तुम्हीं को करता हूँ कहीं नहीं फिर तुम हो!

-अमर कुशवाहा

उलझन

मन उदिघ्न है आज
छाये हैं काले मेघ
सावन बरस रहा रिमझिम
व्यक्त कर रहा
मेरे ह्रदय का भाव !!

क्यों हैं वैसा? 
क्यों हुआ है ऐसा?
पहले भी तो बरसे थे बादल
पहले भी तो थे छाये मेघ
फिर क्यों उलझन में हैं मन !!

-अमर कुशवाहा

भींगी शाम

भींगी शाम
भींगे हाथ !
कहाँ हो तुम !!

भींगा मौसम
 
भींगे शब्द !
कहाँ हो तुम !!

भींगे पलक
 
भींगा चेहरा !
कहाँ हो तुम !!

भींगी याद
 
तुम्हारी बात !
कहाँ हो तुम !!


-अमर कुशवाहा

माँ को समर्पित

मेरे जीवन का प्रथम शब्द
प्रथम क्षुधा भी तुमने मिटाई
कितने कष्ट सहन कर
मुझमें तुम जीवन लाई

अनभिज्ञ थी दुनिया जिससे
उस भाषा को तुमने समझा
मेरी तोतली-बोली की हर जरुरत
बोलने से पहले तुमने समझा

और मैं क्या उपमा दूँ
तुम हर उपमा के पार हो
यदि ईश्वर की कोई सीमा है
माँ तुम उस सीमा के पार हो!


-अमर कुशवाहा

संवाद

काश तुम्हें भी कुछ खबर होती! 
कि कई बातों के शब्द नहीं होते, 
उस क्षण भी कोई शब्द नहीं था 
केवल पलकों के ही बोल फूटे थे... 

वर्षा की ऋतु गोधूलि-प्रहर 
प्राचीन वट-वृक्ष की छाया 
कल-कल की ध्वनि में भी 
मौन था तुम्हारे साथ... 

हमने बातें नहीं की 
संवाद किया था 
क्योंकि 
संवाद में कोई शब्द नहीं होता! 


-अमर कुशवाहा

ईर्ष्या हूँ मैं

ईर्ष्या हूँ मैं!

जलन, खुन्नस, डाह मेरे पर्याय हैं

छल-कपट, भय मेरे दो हाथ हैं

मैं सर्वव्यापी हूँ सदा अनादिकाल से!

 

मैंनें ही रचा महाभारत

दुर्योधन मेरा ही एक रूप था

कितने ही बलशाली हो द्रोण भीष्म

मिट गया अस्तित्व!

 

रावण में मेरा ही अक्स

सीता-अपहरण मैंने ही कराया

भटकाया राम को जंगलों में

रामायण को मैंने ही रचाया!

 

मौर्य से ब्रिटिश तक

साम्राज्य फैला था मेरा

जब चाहा जोड़े रखा

जब चाहा टुकड़ों में तोड़ दिया!

 

अनन्त वर्ष बीत जाने के बाद भी

मैं ही अकेला सत्य हूँ

इस सदी में और भी प्रासंगिक

मैं हर हृदय में रहता हूँ!

 

कभी परिवारों में विघटन

कभी रिश्तों में टूटन

कभी बसा मैं परमाणु-युद्ध में

मैं हर कण-कण में विद्ममान हूँ!


-अमर कुशवाहा

एकता में अनेकता

क्यूँ पूरब है क्यूँ-कर पश्चिम?

क्यूँ-कर उत्तर क्यूँ है दक्षिण?

इस अखंड देश को किसने खंड-खंड कर डाला है?

कभी धर्म, कभी जांति-पाँति कई टुकड़ों में क़तर डाला है!

कहीं क्षेत्रवाद के नारे तो कहीं है गूँज आरक्षण की

कहीं होता चारा-घोटाला कभी बातें गो-रक्षण की

कहीं भूख कि लपटों में माँ की लोरी रोती है

अक्सर बच्चों के संग वो भूखे पेट ही सोती है

कहीं किसी की ऐयाशी पर करोड़ों रुपयें बहाए जाते हैं

कहीं छब्बीस रुपये में केवल लोग अमीर बनाए जाते हैं

सुनों देश को तोड़ने वालों सीमा होती टूटन की भी

नहीं बढ़ा सकते  दबाव सीमा होती घुटन की भी

मत भूलो की अंतिम टुकड़े को परमाणु कहा जाता है

ज्यादा दबाव हो इस टुकड़े पर तो यह परमाणु-बम बन जाता है

अब और तोड़ो भारत को कि हर टुकड़ा एटम-बम बन जाए

इस वसुंधरा पर फिर कोई जीवन शेष रह जाए

इस वसुंधरा पर फिर कोई जीवन शेष रह जाए!


-अमर कुशवाहा