दिवा अमावास की रात सा
प्रकाश के तन पर आसीन!
मेघ की स्वर्णिम कालिमा
द्युत आलोक में कौंध रही
आँचल अपना खोल रही!
सलिल-धूलि-कण का संगम
समीर के बंधन में बहका
दूर कहीं बिहंगम चहका!
टूट पड़े फ़ल पा तरुणाई
साथ गर्ज़न के है निर्मल
कल-कल-कल छल-छल-छल!
सीमाओं की सारी लघुता
पास हुयी और प्रगाढ़
पाकर बूँदों की आड़!
मोर नाचते अनंत ओर
पीहू व नवकल्पों का शोर
नहीं बंधन की कोई डोर!
-अमर कुशवाहा
-अमर कुशवाहा