Monday, April 7, 2014

तेरा रूप

हैं झील सी चंचल तेरी आँखें

इनमें लहरों की बात ही क्या?

ये गिरी हुयी लट चेहरे पर

स्वप्नों का इनमें वास है क्या?

माथे पर चमकती बिंदिया

इनसे चाँद की परवाज़ है क्या?

ये झुकी हुयी पलकें जो तेरी

अम्बर का आगाज़ है क्या?

बूंदे जो लटकें हैं कर्णों पर

हवा को इनसे आस है क्या?

नासिका पर निखरा ये मोती

सूरज का आभास है क्या?

अधर कपोलों पर बिखरी लाली

पंखुड़ियों के अरमान है क्या?

कर-कमलों को जो फैला दो

सिमटे आकाश वो क्या?

यूँ बजते हैं तेरे पायल हरदम

मिलने का अंदाज़ है क्या?


-अमर कुशवाहा