Friday, December 22, 2017

इंसानियत...

कोई रोके ख़ुद को कैसे अंजान रहने तक

मुझे बच्चा ही रहने दे ख़ुदा इंसान रहने तक!

 

एक उम्र सी क्या गुजरी रिहायशी साँचें में

इंसानियत भूल जाते हैं लोग ख़दान रहने तक!

 

ग़मगीन एक के ग़म में पुराने गाँव के सारे लोग

ख़ुश हैं बगल के ग़म में अब अज़ान रहने तक!

 

पेड़ पर जो फल लगा सिजदे में वो झुक गये

मुख्तलिफ़ में हैं लोग अब शायान  रहने तक!


कहीं तीरा कोई सरवत ख़ुदा--नूर है सबमें

पर छलने में हैं लोग अब दुकान रहने तक!

-अमर कुशवाहा

Monday, December 11, 2017

मुझे पता था...I knew it!

मुझे पता था!

वह मेरे जीवन में आयेगा

जब आँखों से नींदें ओझल होंगी

पत्तों पर पड़े ओंस के बूँद सा!

 

मुझे पता था!

वह मुझे बहलायेगा

जब सब-कुछ शांत हो गया हो

एक मूसलाधार बारिश के बाद!

 

मुझे पता था!

वह इंद्रधनुष के स्वप्न दिखलायेगा

जब नीरसता के बादल होंगे

दुःख और अतृप्त भावनाओं के बाद!

 

मुझे पता था!

वह मुझे प्रेम नहीं करेगा

बस मेरी प्यासी आत्मा को छूएगा

पास होकर भी बहुत दूर!

 

मुझे पता था!

 

I knew it!

She’d come in my life

When sleep be gone out of eyes

Like the dew on the leaves!

 

I knew it!

She’d amuse me

When everything becomes quite

After a torrential rain!

 

I knew it!

She’d show the dreams of a rainbow

When there be clouds of drabness

After the grief and sate-less emotions!

 

I knew it!

She’d not love me

But touch my thirsty soul

Though near yet too far!

 

I knew it!

 

-अमर कुशवाहा

Monday, December 4, 2017

भारत के भविष्य का शव

अभी माँ की ममता का आँचल

पूरा पसर भी पाया था

पिता के कंधे पड़े थे

शांत, अचेत, निर्विकार।

अब नहीं बैठेंगे उनपर आँख के तारे

भले ही मेलाओं की भीड़ हो।

किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा था देश आज

लादे हुये अपने जर्जर काँधे पर

अनगिनत शव अपने भविष्य का।

 

कुछ ने तो सीखा ही नहीं था

अब तकमाँबोलना,

ताकि लाल हो सके

लाल की लाली से उसकी माँ।

नहीं! लाल नहीं होने पायी धरती

गोरखपुर के मासूम साठ नौनिहालों के

स्वप्नों की काया में रक्त बचा कहाँ था?

बस बचा रह गया था कुछ तो,

वह थी माँ की टूटी आशा और

पिता की अतृप्त ईच्छा

कि बड़ा होकर बनेगा

उनका छोटा पुत्र श्रवण कुमार।

वह प्रधानमंत्री भी बन सकता था

या फिर मिसाइल मैन।

नियति का दुर्भाग्य कहूँ, या फिर

राजनीति की गंदी बिसात।

सो चुके थे सारे छः फ़ीट भूमि के नीचे

तोड़ सारे स्वप्न और

आँखों में उनकी आस लिये।

 

क्यों नहीं छिड़ा देशव्यापी आंदोलन?

क्यों नहीं हुआ सड़कजाम?

कहाँ छिप गया था मीडिया का पावर?

क्या केवल उन्हीं लाशों का अर्थ है

जिनकी जान जाती है

आतंक की गोलियों से?

या फिर उस भ्रष्टाचारी नेता का जिसके

मृत्योंपरांत होता है उसका महिमामंडन?

और दे दिया जाता है

कुछएक एकड़ भूमि का टुकड़ा!

ताकि बन सके उसकी समाधि,

जब कि शहरों की चौथाई आबादी

सोती हो फुटपाथ पर।

 

बस देखते ही रह गये थे

राम, ईश और अल्लाह।

कोई भी नहीं आया बचाने

भारत के भविष्य को।

जिन पर उत्तरदायित्व था, उन्हें

क्यों नहीं मिला प्राणवायु के सिलेण्डर।

बस सब भिड़े पड़े थे

कोसनें में एक दूसरे को।

कोई किसी को लापरवाह बताता

तो कोई अगस्त माह की ग़लती।

बस फेंकने में लगे थे

अपने कंधे पर रखे भारत के

भविष्य के शवों को

दूसरे के काँधों पर!

 

बस पकड़ा दिये जाते हैं

चंद रूपये मुआवज़े के नाम पर!

पर उससे लौट नहीं पाती

वापिस बच्चों की किलकारियाँ।

किंतु यह भीषण दुःख

केवल कुछएक का नहीं।

कब तक फेंकते रहेंगे

भारत के भविष्य के शवों को

एक दूसरे के काँधों पर?

कब तक ऐसे ही बिछी रहेंगी

राजनीति की गंदी बिसातें और

प्रभाव एवं परिचयवाद का असर?

यदि, यही रहा, तो

निश्चित ही किसी किसी दिन

होगा अपने ही काँधे पर

अपने ही घर के भविष्य के

शव का बोझ।

-अमर कुशवाहा

Thursday, November 16, 2017

मैं तुम्हें प्रेम नहीं करता...

नहीं! मुझे पूरा यकीन है! मैं तुम्हें प्रेम नहीं करता!

लेकिन अमावस की भयानक अँधेरी रात में

जब भी कभी बिजली गुल हो जाती है

तो अक्सर पाया है मैंने तुम्हें

मेरा हाथ थाम कर

मुझे अँधेरे से बाहर निकालते हुये!

 

नहीं! मुझे पूरा यकीन हैं! मैं तुम्हें प्रेम नहीं करता!

लेकिन जीवन के प्रत्येक कठिन परीक्षाओं में

जब भी हारने से घबरा उठता हूँ

तो अक्सर पाया है मैंने तुम्हें

मुझसे लिपट कर

मेरे माथे को सहलाते हुये!

 

नहीं! मुझे पूरा यकीन है! मैं तुम्हें प्रेम नहीं करता!

लेकिन हमारे-तुम्हारे इस अन्जान रिश्ते के मध्य

जब भी कभी दूर होती दिखती हो

तो अक्सर पाया है मैंने तुम्हें

अपने हाथों से

मेरे आंसुओं को पोंछते हुये!

 

नहीं! मुझे पूरा यकीन है! मैं तुम्हें प्रेम नहीं करता!

-अमर कुशवाहा

Tuesday, November 14, 2017

बादलों की ऊँचाई पर...

बादलों की खिड़कियाँ खोलते हैं

चलो मिलकर चाँदनी को ढूंढ़ते हैं!

 

रूई के फाहों के धुंध में

शायद कहीं गुमशुम सी बैठी हो

अपनी नरमाई में लिपटी हुयी

हौले से उसके पलकों को खोलते हैं!

 

रात भर सोती रही मेरे बाग़ों में

चाहकर भी मैंने उसे नहीं जगाया

शीशे की चाशनी से आती रही छनकर

बेफ़िक्र हो हम उसे पूरा ओढ़ते हैं!

 

जब नींद खुली तो उसे ग़ुम पाया

अब सूरज के ताप का मैं सताया

वह नहीं उसकी शीतलता भी नहीं

कहाँ है ग़ुम अब बस यही सोचते हैं!

 

बादलों की खिड़कियाँ खोलते हैं

चलो मिलकर चाँदनी को ढूंढ़ते हैं!

-अमर कुशवाहा

Thursday, November 2, 2017

मैं बन के फिरूँ कृष्ण तुम्हारा...

शस्य श्यामला यमुना तट अब महलों की मथुरा

स्वछंद फ़िरा जो वन-उपवन राजपाश में था जकड़ा

थी बरसाने मथुरा में दूरी पर प्रेम को जिसने साधा

मैं बन के फिरूँ कृष्ण तुम्हारा तुम बन जाओ मेरी राधा!

 

जब तक होंठों पर थी मुरली ब्रज में संगम होता रहता

चक्र का बोझ अब हाथों में क़िससे कहता कैसे कहता?

भावों पर टिका था पूर्ण प्रेम, कभी मिलन बनी बाधा

मैं बन के फिरूँ कृष्ण तुम्हारा तुम बन जाओ मेरी राधा!

 

घिरा हुआ अपनों से ब्रज में मथुरा में मन भी छोड़ गया

हर पहर प्रतीक्षा करते-करते स्वप्नों को भी तोड़ गया

प्रेम-वेदना दोनों सहते रहते बाँट बराबर आधा-आधा

मैं बन के फिरूँ कृष्ण तुम्हारा तुम बन जाओ मेरी राधा!


-अमर कुशवाहा

Thursday, October 26, 2017

भीष्म का बोझ

जब भी लिखा जाता है इतिहास

किसी भी युद्ध का

तो चर्चायें छिड़ती हैं

मात्र विजय एवं पराजय की

उनके समस्त कारण

और बाद के परिणाम की।

 

इतिहास कभी चर्चा नहीं करता

उन कटे-बिखरे धड़ों की

जिन पर कभी सिर सुशोभित थे।

 

इतिहास कभी चर्चा नहीं करता

उन रक्त से सनी नदियों का

जिनमें उनका भी रक्त शामिल था

जो युद्ध मे शामिल थे।

 

इतिहास कभी चर्चा नहीं करता

उस कलेजे काउस कंधे का

जिसके ऊपर इतने सारे

शवों का बोझ था।

 

यदि कभी इतिहास ने चर्चा किया होता

तो हर एक युद्ध मे मिला होता

एक लाचारवेबसवृद्ध योद्धा

भीष्म पितामह सरीखा।

 

जिसके मात्र एक वचन तोड़ देने से

या एक कदम भर आगे बढ़ जाने से

बच सकते थे लाखों के काँधों पर सिर!

बच सकती थी सुहागिनें जो अब

वैधव्य को श्रापित हो गयीं!

बच सकते थे वह बच्चे जो

बड़े होने से पहले ही अनाथ हो गये!

 

इतिहास चाहे जितना ही कोस ले

दुर्योंधनशकुनि और कर्ण को,

किन्तु मेरी नज़र में

महाभारत का खलनायक

कोई और ही था।

-अमर कुशवाहा

Thursday, September 28, 2017

माँ पापा को समर्पित...

जब भी कभी मन हुआ

बीते हुये कल में फ़िर से

एक बार वापिस जाने को

तो आँखें बंद कर लेता हूँ

और सामने पाता हूँ

माँ का शांत चेहरा

झुर्रियों से भरपूर

सफ़ेद पके हुये बाल, और

आँखों की बुझती चमक!

 

उनके चेहरे की हर एक

सिलवट में छिपा है

मेरे एक-एक बर्षों का इतिहास!

उनके सफ़ेद पके बालों में है

मेरी बढ़ती हुयी उम्र का राज!

और

मेरी आँखों में जो चमक है,

ठीक उतना ही है, जितनी

माँ ने धीरे-धीरे अपनी

आँखों को बुझाकर दिये हैं!

 

कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी

इतिहास के किताब की

क्योंकि माँ सम्पूर्ण ग्रन्थ है

वही आदि थीं, वहीँ अंत हैं!

और ज़िल्द हैं पिताजी

थोड़े मोटे, थोड़े सख्त!

उन्होंने कभी भी

ग्रन्थ को बिखरने नहीं दिया!

जिसमे मेरा इतिहास

मेरा बीता हुआ कल

सुरक्षित है!

-अमर कुशवाहा

Monday, August 21, 2017

एक बात मेरी एक रात मेरी

एक बात मेरी एक रात मेरी

जब तन्हाई में याद करोगी

एक ऐसा भी लड़का था

मुझे प्रेम जो करता था!

 

अभी तो चंचल यौवन है

कसा हुआ हर अंग-अंग है

नैन-नक्श सब तीखे हैं

केशों का रंग सुनहरा है!

जब ये यौवन ढल जायेगा

हर अंग ढ़ीला पड़ जायेगा

नैन-नक्श भी फीकें हो जायेंगे

केश सफ़ेद हो जायेंगे

फ़िर याद करोगी तन्हाई में

एक बात मेरी एक रात मेरी

एक ऐसा भी लड़का था

मुझे प्रेम जो करता था!

 

कुछ और साल जो बीतेंगे

हाथ तुम्हारे पीले होंगे

किसी की भाभी किसी की मामी

पल भर में तुम बन जाओगी!

रिश्ते होंगे चारों तरफ़

फ़िर भी ख़ुद को अकेला ही पाओगी

मन की सुनेगा बात कोई

ढूँढ उठोगी कोना-कोना

फ़िर याद करोगी तन्हाई में

एक बात मेरी एक रात मेरी

एक ऐसा भी लड़का था

मुझे प्रेम जो करता था!

 

धीरे-धीरे उमर ढलेगी

बच्चों के भी बच्चे होंगे

एक शाम अचानक ऐसे ही

घर में जब सिर्फ़ पोती होगी

चुपके से पीछे तुम्हारे जाकर

गले में बाहें डाल पड़ेगी!

कहा था दादी तुमनें एक दिन

मुझको कहानी सुनाओगी!’

उसको कहानी सुनानते-सुनाते

माथे को उसके सहलाओगी

प्यार भरी थपकी पाकर

जब नन्हीं गुड़िया सो जायेगी!

फ़िर याद करोगी तन्हाई में

एक बात मेरी एक रात मेरी

एक ऐसा भी लड़का था

मुझे प्रेम जो करता था!


-अमर कुशवाहा