Friday, December 22, 2017

इंसानियत...

कोई रोके ख़ुद को कैसे अंजान रहने तक

मुझे बच्चा ही रहने दे ख़ुदा इंसान रहने तक!

 

एक उम्र सी क्या गुजरी रिहायशी साँचें में

इंसानियत भूल जाते हैं लोग ख़दान रहने तक!

 

ग़मगीन एक के ग़म में पुराने गाँव के सारे लोग

ख़ुश हैं बगल के ग़म में अब अज़ान रहने तक!

 

पेड़ पर जो फल लगा सिजदे में वो झुक गये

मुख्तलिफ़ में हैं लोग अब शायान  रहने तक!


कहीं तीरा कोई सरवत ख़ुदा--नूर है सबमें

पर छलने में हैं लोग अब दुकान रहने तक!

-अमर कुशवाहा

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