ख़्वाबों की
बुलंदी से
हमें भरमाया न करो
अपने शीशे के महल
पर इतराया न करो!
बुझते आफ़ताब में जिनकी बिखर जाये चमक
ऐसे ज़ज्बात भूले से
भी घर
लाया न
करो!
बारहा सिलने पर भी
जो उधड़
जाते हों
ऐसे धागों पर रिश्तें कभी बनाया न करों!
जिस मय
कि आशिकी में हो
घर से
अदावत
मेरे साकी ऐसी शराब कभी पिलाया न करो!
जिसके अहसास से आँखें नम हो
जाये ‘अमर’
ऐसी तस्वीर दीवाने को दिखाया न करो!
-अमर कुशवाहा