Friday, January 11, 2019

विसंगति...

जान का देखो मोल कहीं पर

कहीं साँस है खोटी रे!

बिखरे पड़े कहीं पिज्जा-बर्गर

कहीं सूखी-चिपड़ी रोटी रे!

 

कहीं शाम है भीगी फ़व्वारे से

कहीं फ़सल पड़ी है परती रे!

सत्ता की चर्चा छिड़ी कहीं पर

कहीं रातें बीती सिसकती रे!

 

कहीं दिखें बच्चे हाथी से

कहीं हाड़-मांस का लोथा रे!

हद से ज्यादा कनक कहीं पर

कोई पाई-पाई को रोता रे!

 

कहीं अंग्रेज़ी के बोल खिले

कहीं टाट पर फ़ैली शिक्षा रे!

कहीं फ़ोन पर डॉक्टर हैं आते

कहीं मिलती हैं केवल भिक्षा रे!

 

हल-वालों की बिसात ही क्या?

बैलों का पिंजर दिखता रे!

छोटे-छोटे क़र्ज़ तले जब

घड़ी-घड़ी वह बिकता रे!

 

कहीं मौका है आगे बढ़ने का

कहीं बिखरी अर्थ की लाठी रे!

कहीं शान से सोना-उठना

कहीं रात में केवल फाँसी रे!

 

चला गया जो चला गया

कौन रहा फ़िर बाकी रे!

दुःख-भूख में रोते छप्पर वाले

कोई संगी साथी रे!

 

कुछ दिन चर्चा अखबारों में

अलग-अलग सब बोली रे!

फ़िर चुपके से कर देता इंडिया

भारत से आँख-मिचौली रे!


-अमर कुशवाहा