Friday, January 5, 2018

डराओ, जितनी कि मरज़ी तुम्हारी...

डराओ, जितनी कि मरज़ी तुम्हारी

कि कुर्सी पर बैठे हो है हुक़ूमत तुम्हारी।

 

डराओ, मगर याद इतना तुम रखना

कि डर की भी सीमा होती है प्यारे

जहाँ सबकी साँसे गिरवी है प्यारे

ऐसा हो किसी रोज़ सबेरे ही उठकर

जान जाये यह जनता तुम्हारी अय्यारी

डराओ, जितनी कि मरज़ी तुम्हारी

कि कुर्सी पर बैठे हो है हुक़ूमत तुम्हारी।

 

कभी किसी की बातों का कोना पकड़ते हो

कभी भूखे-नंगों का सोना पकड़ते हो

फटे-हाल लोगों को राह दिखाई

लगते हो देने बीते सालों की दुहाई

कभी जिसने हिम्मत करके कुछ बोला

तुमने क़ानून से उसका ताला है खोला

मुफ़्त में मारी जाती है जनता बेचारी

डराओ, जितनी कि मरज़ी तुम्हारी

कि, कुर्सी पर बैठे हो है हुक़ूमत तुम्हारी।

 

हाथों ही हाथों में सेठ तुम्हें तौलते हैं

मुक़द्दर का सिकंदर लोग तुम्हें बोलते हैं

जहाँ जाते जनता से हुंकारी भराते हो

अपनी ही सारी लाचारी गिनाते हो

लेकिन हे निष्ठुर तुमने यह सोचा

कभी जनता की लाचारी को तुमने पूछा?

यही पाँच सालों में जाके लाईन लगायेंगे

वोटों से अपने किसी और को बिठायेंगे

अगर अपने कामों से दोगे जनता को झटका

कुर्सी से हटने की फिर कर लो तैयारी

डराओ, जितनी कि मरज़ी तुम्हारी

कि कुर्सी पर बैठे हो है हुक़ूमत तुम्हारी।

-अमर कुशवाहा

Wednesday, January 3, 2018

मुझको भुलाकर

ख़ाली महफ़िल तो क्या न अब शाद किया जायेगा?
उस गली जाकर फ़िर न अब फ़रियाद किया जायेगा!


चलो छोड़ देते हैं पलटना ज़िंदगी के सफ़हों को
गुज़रे एहसास को फ़िर न अब याद किया जायेगा!


राह-ए-वफ़ा को थाम कर मंज़िल को हम चले मगर
तेरी चाह में ख़ुद को फ़िर न अब बाद किया जायेगा!


वक़्त की रेत पर पत्थर भी दरिया हो जाते हैं
अपनी साँसों को फ़िर न अब ज़ियाद किया जायेगा!


तेरे अश्क़ के हर क़तरे में होगा दास्तान-ए- 'अमर'
मुझे भुल तुमसे फ़िर न अब फ़साद किया जायेगा।


-अमर कुशवाहा

Tuesday, January 2, 2018

बादलों की किस्मत...

उस जहाँ में भी सदा--जरस रहे होते

ग़र घेरे हुये तिरे याद--कफ़स रहे होते!

 

बादलों की किस्मत में उड़ना लिखा है

ठहरे अगर होते कहीं तो बरस रहे होते!

 

जाने किस क़सूर में जमीं से अदावत हो गयी

वरना पाँव फैला बैठ कर दरस रहे होते!

 

आसमाँ अपना नहीं कह लौट कर वो गये

वरना बुलंदी आसमाँ की दस्तरस रहे होते!

 

मानता हूँ परवाज को पंख हैं जरूरीअमर

पर पैर होता तो कितना तरस रहे होते!


-अमर कुशवाहा