डराओ, जितनी कि मरज़ी तुम्हारी
कि कुर्सी पर बैठे हो है हुक़ूमत तुम्हारी।
डराओ, मगर याद इतना तुम रखना
कि डर की भी सीमा होती है प्यारे
जहाँ सबकी साँसे गिरवी है प्यारे
ऐसा न हो किसी रोज़ सबेरे ही उठकर
जान जाये यह जनता तुम्हारी अय्यारी
डराओ, जितनी कि मरज़ी तुम्हारी
कि कुर्सी पर बैठे हो है हुक़ूमत तुम्हारी।
कभी किसी की बातों का कोना पकड़ते हो
कभी भूखे-नंगों का सोना पकड़ते हो
फटे-हाल लोगों को न राह दिखाई
लगते हो देने बीते सालों की दुहाई
कभी जिसने हिम्मत करके कुछ बोला
तुमने क़ानून से उसका ताला है खोला
मुफ़्त में मारी जाती है जनता बेचारी
डराओ, जितनी कि मरज़ी तुम्हारी
कि, कुर्सी पर बैठे हो है हुक़ूमत तुम्हारी।
हाथों ही हाथों में सेठ तुम्हें तौलते हैं
मुक़द्दर का सिकंदर लोग तुम्हें बोलते हैं
जहाँ जाते जनता से हुंकारी भराते हो
अपनी ही सारी लाचारी गिनाते हो
लेकिन हे निष्ठुर न तुमने यह सोचा
कभी जनता की लाचारी को तुमने पूछा?
यही पाँच सालों में जाके लाईन लगायेंगे
वोटों से अपने किसी और को बिठायेंगे
अगर अपने कामों से दोगे जनता को झटका
कुर्सी से हटने की फिर कर लो तैयारी
डराओ, जितनी कि मरज़ी तुम्हारी
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