Saturday, August 9, 2014

वो छोड़कर गये

कुछ इस तरह से वादों को तोड़कर गये

वो क्यों सरे-बाज़ार मुझे छोड़कर गये?

 

ही मंज़िल और आशियें का पता

अन्जानी से गली में मुझे मोड़कर गये!

 

हाथ छू सके पकड़ सके दामन

मेरी तरफ़ से ऐसे मन मरोड़कर गये!

 

शाख़--शज़र पर बिठा कर मुझे तनहा

शांत से दरख़्त को ख़ूब झंझोड़कर गये!

 

कैसे बयाँ करेअमरअब उनके सितम

जाते-जाते ख़ुद को मुझसे जोड़कर गये!

-अमर कुशवाहा

Wednesday, July 9, 2014

किसको अपना कहें?

मैंने काँटों को नरमी से छुआ है अक्सर

लोग बेदर्द हैं कि फूलों को मसल देते हैं!

 

सफ़र लंबा हो तो तनहा चलना ही अच्छा

अक्सर रौशनी में लोग साया भी खो देते हैं!

 

सवालात ही किया बात किया कुछ भी

पाकर के सामने तुम्हें हम ख़ुद ही रो देते हैं!

 

वफ़ा--चराग़ से जब रोशन किया जहाँ में

जफ़ा के तीर आकर हवा बिखेर देते हैं!

 

अमरकिसको कहे अपना इस दुनिया में

मुस्करा के बार-बार लोग दिल तोड़ देते हैं!


-अमर कुशवाहा

भुलाऊँ कैसे?

अपना धड़कता हुआ दिल दिखाऊँ कैसे?

बात निकली नहीं अब तक बताऊँ कैसे?

 

सर्द मौसम में सिमट जाती है सारी रात

दिन गुजर जाता है किस्सा दुहराऊँ कैसे?

 

ख़्वाबों की ताबीर उड़ जाती है हर सुबह

भींगे तकिये को ज़माने से छुपाऊँ कैसे?

 

आईना खड़ा करता है अब सवाल कई

बड़ा कठिन है हल उसे समझाऊँ कैसे?

 

बिखरे चंद सफ़हों में लाखों लम्हेंअमर

आते हैं मुझे याद आख़िर भुलाऊँ कैसे?

-अमर कुशवाहा

Monday, April 7, 2014

तेरा रूप

हैं झील सी चंचल तेरी आँखें

इनमें लहरों की बात ही क्या?

ये गिरी हुयी लट चेहरे पर

स्वप्नों का इनमें वास है क्या?

माथे पर चमकती बिंदिया

इनसे चाँद की परवाज़ है क्या?

ये झुकी हुयी पलकें जो तेरी

अम्बर का आगाज़ है क्या?

बूंदे जो लटकें हैं कर्णों पर

हवा को इनसे आस है क्या?

नासिका पर निखरा ये मोती

सूरज का आभास है क्या?

अधर कपोलों पर बिखरी लाली

पंखुड़ियों के अरमान है क्या?

कर-कमलों को जो फैला दो

सिमटे आकाश वो क्या?

यूँ बजते हैं तेरे पायल हरदम

मिलने का अंदाज़ है क्या?


-अमर कुशवाहा

Thursday, January 9, 2014

सूखा कुआँ

पहले रिमझिम सी बारिश थी

सूखा कुआँ तब हरा था

बुझाता था सबकी प्यास!

उसके लिये सब बराबर थे

कुछ दूब भी उग आयी थी

उसकी परिधि के चारों ओर

उसने मिट्टी को नमीं दी थी, और

निर्माण किया था अपने चारों ओर

हरियाली का, तृप्ति का!

समय ने एक करवट ली!

कब रुका ही है समय

किसी एक बिंदु पर?

सूर्य की चमक तेज़ हो गयी

और तेज, बहुत तेज!

सूख गया सूखा कुआँ!

मिट्टी में पपड़ियाँ पड़ गयीं

हरी दूब भी सूख गयी!

अब सूखा कुआँ सूखा है

हरियाली है ही तृप्ति!

बस प्रतीक्षा है उसे

समय की एक और करवट का!


-अमर कुशवाहा