कुछ इस तरह से वादों को तोड़कर गये
वो क्यों सरे-बाज़ार मुझे छोड़कर गये?
न ही
मंज़िल और
न आशियें का पता
अन्जानी से
गली में
मुझे मोड़कर गये!
न हाथ
छू सके
न पकड़
सके दामन
मेरी तरफ़
से ऐसे
मन मरोड़कर गये!
शाख़-ए-शज़र पर
बिठा कर
मुझे तनहा
शांत से
दरख़्त को
ख़ूब झंझोड़कर गये!
कैसे बयाँ करे ‘अमर’
अब उनके सितम