Monday, January 25, 2021

जय माता दी

 

जय माता दी

यात्रा वृत्तांत

कोई भी यात्रा स्वयं में जीवंतता लिये होती है, किंतु जब यात्रा में मित्रों का भी साथ मिल जाये तो वह अविस्मरणीय हो उठता है। कुछ ऐसी ही रही हमारी वैष्णों माता के धाम की यात्रा! कहते हैं कि कोई भी केवल चाहकर माता के दर्शन नहीं कर सकता है जब तक कि माँ वैष्णों उसे स्वयं न बुलायें। हमारी दर्शन-यात्रा के पीछे भी माँ का बुलावा ही था! 

दिनाँक अठारह अगस्त सन दो हज़ार अठारह को बृजेश सिंह (जिसे मैं प्यार से ठाकुर कहता हूँ) का अंतिम परीक्षा परिणाम आया था। परिणाम के लगभग दो सप्ताह पूर्व से ही प्रतिदिन मैं दस-पंद्रह बार बिहार लोक सेवा आयोग की वेबसाइट खोलकर चेक किया करता था कि कहीं रिजल्ट अपलोड तो नहीं कर दिया गया! इतनी बेसब्री थी। प्रतिदिन ठाकुर से दिन में पाँच-छः बार बात हुआ करती थी। और कोई बेसब्र हो भी तो क्यों न हो? जब सबकुछ हाथों से फ़िसल चुका हो और जीवन के मंझधार में उसे कोई किनारा नज़र आ आये तो क्या वह उसे पाने की ईच्छा नहीं करेगा? हम सब भी कुछ इसी लालसा से बंधे थे। रही बात ठाकुर की तो, उसके लिए इस परिणाम का ठीक उतना ही महत्त्व था जितना कि वेंटीलेटर पर पड़े हुए किसी मरीज़ के लिए प्राण-वायु! 

पिछले एकाध वर्षों में उसे हर दिन टूटते और फ़िर उन्हीं टुकड़ों से अपने को जोड़ते देखा था। जब भी कभी ठाकुर निराशा के चरम पर पहुँचता था तो बस एक गंभीर आवाज़ में केवल यही कहा करता था- 

“जानते हो अमर! उम्र के इस पड़ाव पर पहुँचकर केवल एक ही ईच्छा रह गयी है कि किसी दिन एक दुकान से पारले-जी बिस्किट का एक पैकेट ख़रीद किसी अपने को देकर यह कह सकूँ कि- खा लो! यह मेरे अपने कमाये हुये पैसे का है!” 

“यह दिन भी आयेगा! आख़िर कब तक क़िस्मत रूठी रहेगी? रात के बाद दिन को निकलना ही पड़ता है!”- और मैं केवल इतना ही कह पाता था। 

बिहार लोक सेवा आयोग ने अपने एक नोटीफिकेशन में यह कहा था कि ५६वीं-५९वीं संयुक्त परीक्षा का परिणाम अगस्त माह के दुसरे सप्ताह में संभावित है। १८ अगस्त २०१८ से पहले के पल कैसे कटे, चाह कर भी लिख नहीं पाउँगा। आख़िरकार वह दिन आ ही गया जिसका इंतज़ार हम सबको न जाने पिछले कितने वर्षों से थी। शनिवार का दिन होने के कारण मेरा ऑफिस बंद था। सुबह से लग रहा था कि आज तो रिजल्ट आ ही जाना चाहिए! कम से कम, पचासों बार ठाकुर से मेरी बात हुयी होगी! दोनों एक-दुसरे को आस बंधा रहे थे। शाम होने तक हमारे मित्र सुनील कुमार (स्वामी जी) भी ठाकुर के पास पहुँच गये थे। दिल कि धड़कन इतनी तेज़ थी कि बगल में बैठा कोई भी उसे आसानी से सुन सकता था। ठाकुर का हाल भी बिलकुल ऐसा ही था! किसी को कुछ नहीं पता था कि आगे क़िस्मत कौन सा रंग दिखाने वाली थी? मैंने शाम होने के साथ ही ठाकुर को कमरे में अकेले रहने के लिए मना कर दिया था; इसी कारण वह बाहर संतनगर (दिल्ली) में ही किसी चाय कि दुकान पर कुछ परिचितों एवं स्वामी जी के साथ बैठा हुआ परिणाम की प्रतीक्षा कर रहा था। जब कुछ और देरी हुयी तो स्वामी जी से नहीं रहा गया; वह उठकर चलते हुए मुख्य सड़क को पार कर मंदिर कि ओर बढ़ गये! कुछ न कुछ पा जाने का दबाव कुछ ज्यादा ही था। शाम सात बजे के बाद परीक्षा का परिणाम जारी हुआ। मैं ऊंटी (तमिलनाडु) में था और ठाकुर कॉल पर था! मैंने परिणाम अपने मोबाइल पर डाउनलोड किया! सर्वर बहुत ही धीमा था! पहला पेज खुला...ठाकुर का नाम नहीं! दूसरा पेज खुला...ठाकुर का नाम नहीं! तीसरा पेज अभी खुल रहा था...मैंने ठाकुर को बताया तो वह डबडबाये शब्दों में बस इतना बोला- 

“कहीं भी हो! कोई भी रैंक हो! बस कहीं अटक जाऊँ! वरना, अब धैर्य कि सारी सीमा टूट चुकी है! अब आगे जीवन जी पाउँगा या नहीं...नहीं पता!...रुको! मैं तुम्हें बाद में कॉल करता हूँ! स्वामी जी का फ़ोन आ रहा है!” 

और दूसरी तरफ से कॉल डिसकनेक्ट हो गयी। धीरे-धीरे अगले पन्ने खुलने लगे। किसी पेज पर ठाकुर का नाम और अनुक्रमांक देख कर मेरे आँसूं बह उठे। मैंने ठाकुर को कॉल किया और रोते हुए रुंधे गले से केवल इतना ही कह पाया- 

“ठाकुर! पारले-जी खिलाओगे?” 

यह सुनते ही कॉल कि दूसरी तरफ़ ठाकुर का भी गला रूंध आया। न मैं उसे बधाई ही दे पाया और न ही वह कुछ कह पाया। बस कुछ देर दोनों केवल रोते रहे। दोनों की वर्षों की साधना अब जाकर पूरी हो गयी थी। ठाकुर ने यह कहकर कॉल काटा कि वह बाँसी फ़ोन करके मम्मी को खुशखबरी देने जा रहा है! मैंने तुरन्त ही स्वामी जी को फ़ोन मिलाया जो कि अभी भी मंदिर के प्रांगण में ही बैठे थे! उन्होंने केवल इतना कहा- 

“आख़िर शिव जी ने मेरी सुन ली! अपने इस भक्त को ख़ाली नहीं लौटाया!” और वह मंदिर से निकलकर वापिस चाय की दुकान की ओर बढ़ गये, जहाँ ठाकुर पहले से ही था। 

मैंने शिवालिका (मेरी अर्धांगिनी) को कॉल किया और उसे यह खुशखबरी दी! मारे ख़ुशी के वह भी कुछ बोल नहीं सकी! अगर सच कहूँ तो मेरे और ठाकुर के अलावा शिवालिका ही थी जिसने दोनों के संघर्ष को पिछले छः वर्षों में बड़े ही क़रीब से देखा और महसूस किया था। और उसके सहयोग के बिना, शायद, यह संघर्ष मैं इतने अच्छे तरीके से नहीं कर सकता था। 

फ़िर मैंने मित्र अरविन्द शुक्ल को कॉल किया और उसके मुँह से यही निकला- 

“माँ दुर्गा ने आख़िर सुन ली!” फ़िर कुछ याद करते हुए एक सुझाव दिया- “अमर! मैं और मनीष सहाय २४ अगस्त की शाम को माता वैष्णो देवी के दर्शन यात्रा पर निकल रहे हैं! अगर संभव हो, तो चलो सब साथ में ही चलते हैं!” 

“अगले सप्ताह चेन्नई में मेरी एक मीटिंग होने वाली है, यदि वह कैंसिल हो पाये तो ही संभव है! मैं सोमवार (२० अगस्त) के दोपहर तक ही तय करके बता पाउँगा! खैर! यह सब बातें अभी छोड़ो और ठाकुर के पास संतनगर के लिए निकलो!”- इतना कह मैंने कॉल डिसकनेक्ट कर दी। 

फ़िर मैंने विकास तिवारी, भरत चौबे, अरविन्द सिंह, सचिन श्रीवास्तव, संतोष सिंह आदि सब मित्रों को कॉल करके खुशखबरी दी, जिन –जिनका भी कॉल कनेक्ट हो पाया। सब अत्यंत हर्षित थे। और बाकी लोगों को व्हाट्सएप्प ग्रुप में मैसेज डालकर सूचित कर दिया। 

अगले दिन यानि रविवार दोपहर को मेरी सबसे बातें हुयीं, तो मैंने अपना वही कथन दुहराया कि मैं सोमवार को ही निश्चित कर पाउँगा कि इस यात्रा में शामिल हो पाउँगा या नहीं! शाम को ठाकुर से बात करने के दौरान कोई ११ वर्ष पूर्व कि घटना याद हो आयी। नवंबर २००७ में मैं, ठाकुर और दो अन्य मित्र (अमित और कैवर्त केशव सामंतराय) अचानक ऐसे ही पालमपुर (हिमाचल प्रदेश) गये थे एवं मेरे एक अन्य मित्र (रजनीश सिन्हा), जो कि पालमपुर स्थित हॉर्टिकल्चर कॉलिज से परास्नातक कर रहे थे, के हॉस्टल में रुके थे। लगभग छः दिन का प्रोग्राम था, जिसके दौरान हम पालमपुर, मैकलोडगंज, डलहौज़ी, धर्मशाला, चंबा एवं वैद्यनाथधाम जैसे अनेक हिल स्टेशन टहले थे। वहीं धर्मशाला से लगभग १५ किमी दूर माता चामुण्डा devi का एक मदिर स्थित है! मंदिर में दर्शन के उपरान्त उसके बगल में बह रही बनेर नदी के बीच शिलाओं पर बैठकर काफ़ी समय बिताया था हम चारों ने! मंदिर से थोड़ी ही दूर मंदिर ट्रस्ट के एक अन्यत्र भवन में प्रतिदिन लंगर/भंडारे का आयोजन किया जाता है। हम लोगों ने भंडारे में खाना भी खाया था! और वहाँ से निकलते समय सबने मंत्रणा करके यह तय किया था कि जब भी हम चारों अपने जीवन में सेटल हो जायेंगे तो इसी मंदिर में साथ आकर एक पूरे दिन के भंडारे का बंदोबस्त हम चारों करेंगे! जब मैंने इंटरनेट पर चेक किया तो पाया कि कटरा( जम्मू & कश्मीर, जहाँ से माता वैष्णो devi के भवन कि पैदल यात्रा प्रारंभ होती है) से धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) की दूरी केवल २५० किमी ही थी! यूँ लगा कि ११ वर्ष पूर्व किये हुए वायदे को निभाने का समय आ गया है। 

अगले दिन सोमवार दिनाँक २०.०८.२०१८ को ऑफिस से सबसे पहले मैंने उस सप्ताह चेन्नई में होने वाली मीटिंग के संबंध में पता किया। मालूम हुआ कि मीटिंग अतिरिक्त मुख्य सचिव के अन्यत्र विषय में व्यस्त होने के कारण मेरे विषय की मीटिंग अक्टूबर माह के द्वितीय सप्ताह में तय कर दी गयी है। अविलंब मैंने छुट्टी के लिए आवेदन दे दिया एवं छुट्टी का आश्वसन मिलने पर मैंने दिल्ली की टिकट बुक की और साथ ही साथ जिस ट्रेन से अरविन्द शुक्ल दिल्ली से कटरा जा रहे थे, उसी ट्रेन में मैंने ठाकुर, स्वामी जी और अपना टिकट भी बुक कर लिया। हमें कनफर्म्ड टिकट नहीं मिला, पर एक अन्य मित्र याकूब शेख ( जो कि २०१० बैच के IRAS अफ़सर हैं) जी के सहयोग से टिकट कनफर्म्ड हो गया। मैंने वापसी का टिकट पठानकोट (पंजाब) से दिल्ली के लिए २८.०८.२०१८ को बुक कर लिया। सब कुछ निश्चित होने के बाद मैंने अन्य मित्रों से कॉल करके यात्रा में सम्मिलित होने के लिए पूछा। पर सचिन (जो चंडीगढ़ में पोस्टेड था) को छोड़कर अन्य किसी न किसी कारणवश शामिल नहीं हो सके! सचिन ने कहा कि वह सीधे २५ तारीख की सुबह जम्मू रेलवे स्टेशन पर मिलेगा। मनीष सहाय सीधे २५ की शाम को कटरा में मिलने वाले थे। मैंने स्वामी जी से यूजर आईडी लेकर सबके नाम से यात्रा पर्ची (जिसकी आवश्यकता बाणगंगा चेक-पोस्ट से ऊपर भवन जाने के लिए पड़ती है एवं ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों तरीके से प्राप्त की जा सकती है) निकाल ली और सबको कार्यक्रम की रूप-रेखा समझा दिया। उसके उपरांत मैंने अपने एक मित्र एवं बैचमेट राकेश कुमार (जिलाधिकारी, हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश) से अपने कार्यक्रम के बारे में बताया। उन्होंने सहर्ष धर्मशाला सर्किट हाउस में मेरे नाम से तीन कमरे निर्धारित तिथि में बुक करवा दिये एवं साथ ही साथ, माता चामुण्डा देवी ट्रस्ट के चेयरमैन (एसडीएम, धर्मशाला) से बात करके मेरे कार्यक्रम के बारे में बता कर आपेक्षित सहयोग देने को भी कह दिया। तदुपरांत मैंने एक अन्य मित्र एवं बैचमेट पियुष सिंघला (जो इससे पूर्व माता वैष्णो देवी श्राईन बोर्ड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी रह चुके थे) से निर्धारित तिथि को ऊपर भवन में एक बड़ा कमरा मेरे नाम से बुक करवाने की प्रार्थना की, जिसको उन्होंने सहर्ष करवा दिया। 

अचानक से दिनाँक २३.०८.२०१८ रात लगभग ९ बजे एक अन्य मित्र कपिल अग्रवाल (दिल्ली) का कॉल आया उन्होंने भी यात्रा में साथ चलने में दिलचस्पी दिखाई। मैंने तत्काल उनकी भी यात्रा पर्ची निकाल ली। और उन्होंने ठीक हमारे वाले ट्रेन में ही तत्काल में अपनी टिकट बुक कर ली। दो लोगों से प्रारंभ हुयी दर्शन-यात्रा में २३ तारीख़ बीतते-बीतते कुल सात मित्र सम्मिलित हो चुके थे। शायद माँ ने सबको एक साथ बुलाया था! मेरी माता वैष्णो देवी की यह पहली यात्रा थी! या फ़िर यह कहूँ कि मेरे परिवार से मै प्रथम व्यक्ति था जिसे उस पवित्र तीर्थस्थल के दर्शन का मौका मिल रहा था। और संयोग से माँ ने ऐसे समय पर बुलाया था जबकि ठाकुर अपने ध्येय में सफ़ल हो चुका था और सब एक साथ मिलने को छटपटा रहे थे। 

आख़िरकार २४.०८.२०१८ की सुबह आ ही गयी। मैं फ्लाइट से शाम के साढ़े पाँच बजे दिल्ली पहुँच गया। लगभग चालीस मिनट बाद मैं कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन पर पहुँचा, जहाँ ठाकुर और स्वामी जी पहले से ही मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। सर्वप्रथम मैंने ठाकुर के गले लग उसे उसकी सफलता के लिए बधाई दी! फ़िर वहाँ से मूलचंद मेट्रो स्टेशन के लिए मेट्रो पकड़ ली! स्वामी जी थोड़े परेशान दिखे! जब मैंने पूछा तो उन्होंने बताया- 

“ आज दोपहर विनीता (स्वामी जी की अर्धांगिनी) की ट्रेन थी दिल्ली से लखनऊ के लिए! रक्षाबंधन पर मायके जा रही हैं! ट्रेन लगभग सात घंटे लेट है और हम लोग स्टेशन जाकर वापिस घर लौट आये हैं! अब यह डर है कि कहीं ट्रेन रद्द न हो जाये! वरना उन्हें और बच्चे को कुछ दिन अकेले दिल्ली में ही रहना पड़ जायेगा।” 

उनकी समस्या जायज़ थी क्योंकि अगले चार दिनों तक हम लोगों को साथ में चार दिन दिल्ली से बाहर ही रहना था। मैंने केवल इतना सुझाव दिया- “चूँकि त्यौहार है तो ट्रेन रद्द नहीं होनी चाहिये! रही बात रेलवे स्टेशन पर रात में जाकर छोड़ने की तो वह आपके छोटे भाई साहब विनीता भाभी और आरुष को ले जाकर ट्रेन में बिठा सकते है! बस उन्हें पहले संतनगर आना होगा।” 

“हाँ! मैं भी ऐसा ही सेट-अप करके आया हूँ! बस ट्रेन रद्द न हो, वरना यात्रा पर भी सारा ध्यान यहीं लगा रहेगा!”- स्वामी जी ने सहमति जतायी। 

शाम सात बजे के आस-पास हम तीनों अरविन्द शुक्ल के घर पहुँचे। मृदुला भाभी ने ठाकुर की सफलता को सेलिब्रेट करने के लिए सरप्राइज के तौर पर केक मंगा कर रखा था। ठाकुर ने रेयांश (अरविन्द के सुपुत्र) के साथ मिलकर केक काटा और सबने मिलकर खाया। भाभी ने पास्ता बना कर रखा था! मुझे बहुत भूख लगी थी क्योंकि ऊंटी से उतरकर कोयम्बटूर से फ्लाइट पकड़ने के चक्कर में मैं ठीक से कुछ खा भी नहीं पाया था और फ्लाइट का खाना तो माशाअल्लाह होता है। मैंने फटाफट दो प्लेट पास्ता पर हाथ साफ़ कर दिये। भाभी ने ट्रेन के लिए पहले से ही खाना बनाकर पैक कर दिया था। हम चारों सामान लेकर साढ़े नौ बजे सराय रोहिल्ला रेलवे स्टेशन पहुँच गये। हमारी ट्रेन दस बजे थी और कपिल अग्रवाल का कहीं अता-पता नहीं था। अरविन्द ने कपिल को फ़ोन मिलाया तो पता चला कि उसने तुरन्त ही रेलवे स्टेशन आने के लिए मेट्रो ट्रेन पकड़ी है। अब यह भी संदेह था वह सही समय पर रेलवे स्टेशन पहुँच भी पायेगा या नहीं? हम लोग अपने कम्पार्टमेंट में आकर बैठ गये। सब कपिल की ही बात कर रहे थे कि अरविन्द तपाक से बोल उठा- 

“इसमें घबराने वाली कोई बात नहीं है! मैं कपिल के साथ कई बार यात्रा कर चुका हूँ! देखना, जब ट्रेन सरकना शुरू करेगी वह तपाक से आकर ट्रेन पकड़ लेगा! उसकी ट्रेन कभी भी नहीं छूटती और ट्रेन के चले बिना उसने कभी ट्रेन पकड़ी भी नहीं!” 

सब उसकी बातें सुनकर मुस्कराने लगे। अपने निर्धारित समय पर ट्रेन ने सरकना शुरू किया, कपिल अभी भी कहीं नहीं दिखा! मैंने कपिल को फ़ोन मिलाया- 

“हाँ अमर भाई! बस तुरन्त ही ट्रेन पर चढ़ा हूँ और अभी पिछली बोगी में हूँ!”- हांफते हुए दूसरी ओर से कपिल कि आवाज़ आयी। 

“मैंने कहा था न!”- अरविन्द बोल उठा और सब खिलखिला उठे। 

कपिल के आने के बाद हम लोग कुल पाँच हो गये पर सीट केवल चार ही कनफर्म्ड थी और एक अभी भी RAC था। सबने पहले खाने पर हाथ साफ़ किया! जल्दबाज़ी के चक्कर में खीर और एक सब्जी का पैकेट तो घर ही छोड़ आये थे, फ़िर भी, खाना पर्याप्त था। अब समस्या यह थी कि किन्हीं दो लोगों को एक ही सीट पर एडजस्ट करना था! और सबके साइज़ के आधार पर यह संभावना केवल मेरे और ठाकुर के साथ ही संभव था। 

सुबह लगभग सात बजे हमारी ट्रेन जम्मू स्टेशन पहुँच चुकी थी। सचिन रेलवे स्टेशन पर ही हमारी प्रतीक्षा कर रहा था, वह सुबह के पाँच बजे ही पहुँच गया था। हम लोगों ने स्टेशन परिसर से बाहर निकलकर चाय पी और फ़िर रेडी होने के बाद एक दूसरी ट्रेन (जम्मू से कटरा के लिए), जो कि स्टेशन पर ही खड़ी थी, जाकर बैठ गये। कुछ ख़ास भीड़ नहीं थी। ट्रेन न जाने कितने ही सुरंगों से गुज़रती हुयी चली जा रही थी। बाहर का दृश्य बड़ा ही मनोरम था। एकाध जगह झरने भी दिखे! पहाड़ तो मानों हरियाली कि चादर ओढ़ कर सोये से लगे। इधर ट्रेन के भीतर ठहाकों पर ठहाके लग रहे थे। कभी कोई पुरानी बात, तो कभी अरविन्द शुक्ल के झूठ से गढ़े बनावटी किस्से, जिसमें उसे महारत हासिल है, का दौर चलता ही जा रह था। कई साल बाद चाय में चना-मुढ़ी खाया गया और चाय पर चाय भी चली। सुबह साढ़े दस बजे के आस-पास हम लोग कटरा रेलवे स्टेशन पहुँच गये। कुछ फ़ोटोज़ खींचे गये। रेलवे स्टेशन के बाहर दो ऑटो बुक करके हम छः कटरा टाउन के अन्दर आ गये। चारों ओर रूम बुक कराने वालों की भीड़ लगी हुयी थी। स्वामी जी हमें उस होटल ले गये जहाँ पर उन्होंने पहले से ही बात कर राखी थी, लेकिन कुछ कारणों से बात नहीं बनीं! अंत में कपिल ने रूम देखने का निर्णय लिया। 

“आओ! हम लोग कहीं बैठ कर चाय का आनंद लेते हैं! अब कपिल रूम देखने गया है तो सबसे अच्छा रूम सबसे कम दामों में बुक करके ही लौटेगा! बस एक घंटे की प्रतीक्षा करनी होगी।”- अरविन्द ने मुस्कराते हुये सुझाव दिया। 

हम लोग एक टी-शॉप के अन्दर बैठकर चाय पीने लगे। अरविन्द के उम्मीद के विपरीत, कपिल ने पैंतीस मिनट में ही रूम ढूंढ निकाला था जो कि चौक के पास में ही था। नहा-धोकर कुछ सो गये तो कुछ कहानियों में मशगूल हो गये। दोपहर दो बजे हम लोग भोजन के लिए बाहर निकले। इससे पहले कि स्वामी जी की तीखी निगाह टलती हुयीं कचौड़ियों आदि पर पड़े, अरविन्द ने काफ़ी गंभीर होकर सुझाव दिया- 

“ऐसा करते हैं कि दोपहर के भोजन में हम लोग केवल सलाद खायेंगे! ताकि स्वास्थ्य सही रहेगा और शाम को चढ़ाई करने में दिक्कत भी नहीं होगी!” 

स्वामी जी का चेहरा अचानक से बुझ गया। और बाकी लोगों की हँसी छूट गयी। बात यह है कि स्वामी जी का हाथ जिह्वा से बचपन से ही छूट गया है; वह ठहरे खाने और खिलाने के बड़े शौक़ीन- समोसे, जलेबी, पकौड़िया, या कुछ भी नया जो उन्हें नज़र आ जाये! अब यदि उन्हें समूह में होने के कारण केवल सलाद खाना पड़ जाये तो उनकी ऐसी मनःस्थिति जायज़ है। 

उन्होंने थोड़ा रूठते हुए कहा- “ ऐसा मज़ाक नहीं किया करो अरविन्द! मैंने सच मान लिया था!” 

दोपहर के भोजन के दौरान ही यह तय हुआ कि पैसा कोई एक ही खर्च करें! यह जिम्मेदारी कपिल को दे दी गयी। सबने दो-दो हज़ार रुपये कपिल को दे दिये। यह तय हुआ कि जब यह खत्म हो जायेगा, तो फिर से दो-दो हज़ार सब लो दे देंगे। भोजन के उपरांत कटरा टाउन में स्थित निहारिका भवन के ऑफिस में जाकर हमने ऊपर भवन के कमरे कि रसीद ले कर सुरक्षित रख ली और कमरे में आकर सब लोग आराम करने लगे। शाम पाँच बजे के बाद मनीष सहाय पहुँचे। जहाँ तक मुझे याद है मनीष से मेरा परिचय स्नातक करने के दौरान एक ही बार हुआ था। हाँ यह अलग बात है कि अरविन्द के बातों के माध्यम से वह हमेशा जुडा रहा। 

रात लगभग आठ बजे कुछ सामान होटल वाले के पास छोड़कर बाकी कंधों पर टिकाये हम सातों अब यात्रा आरंभ करने के लिये तैयार थे। “जय माता दी” का जयकारा कर हमने अपनी यात्रा आरंभ की। थोड़ी देर के यात्रा के उपरांत टाउन से बाहर निकलकर एक दुकान ‘जय माता दी’ प्रिंट किया हुआ रुमाल लिया गया और सबने एक दुसरे के माथे पर बाँध दिया! उसी दुकान से सबके लिए एक-एक डंडा भी कह्रीद लिया गया जो चढ़ाई के दौरान काफ़ी उपयोगी साबित होता है (यह मेरा ट्रैकिंग का व्यक्तिगत अनुभव था) । मुश्किल से अभी एक किमी ही आये होंगे कि ठाकुर का सैंडिल उखड़ गया। खैर थोड़ी ही दूरी पर रास्ते में एक दुकान दिखी वहीँ से ठाकुर के लिए जूते भी ख़रीद लिए गये। 

कोई दो किमी चलने के उपरांत यात्रा का पहला पड़ाव (बाणगंगा) आया, जहाँ एक पक्का स्ट्रक्चर खड़ा था-एक चेकपोस्ट जैसा। वहाँ अनेक दर्शनार्थी कतार में खड़े थे। हम सब भी पंक्तियों में खड़े हो गये। स्कैनर द्वारा सबका बैग स्कैन किया गया एवं सबको मेटल डिटेक्टर से चेक होने के बाद हम चेक-पोस्ट के दूसरी तरफ आ गये। पुनः माँ के जयकारा के बाद हमने पात्र प्रारंभ कर दी।थोड़े और सफ़र के बाद बाणगंगा नदी बहती दिखायी दी। सीढ़ियों से उतरकर हम सबने अपने हाथ-पाँव धुले! कितनी निर्मल धारा! एकदम स्वच्छ! बिजली कि टिमटिमाती कृत्रिम प्रकाश में भी अपने अन्दर समेटे सारे अवयवों को स्पष्ट झलकाती हुयी! थोड़ी देर हम सीढ़ियों पर बैठे रहे और पुनः अपनी यात्रा जारी रखी। कुछ और आगे बढ़ने पर “चरण-पादुका मंदिर” मिला। ऐसा प्रचलित है कि इस स्थान पर भैरो बाबा और माँ के युद्ध के दौरान माँ ने सर्वप्रथम यहीं पर अपने पाँव रखे थे, और इसी लिए इसका नाम “चरण-पादुका मंदिर” पड़ा। सबने मंदिर के दर्शन किये और माता के चरणों को प्रणाम किया; और माँ का जयकारा लगाते हुये आगे बढ़ चले। सारा रास्ता पहाड़ों को काटकर बहुत ही सुगम बनाया हुआ था, जो ऊपर टीन की छत आदि से ढके हुए थे। बहुत सारे लोग घोड़ों, खच्चरों आदि का सहारा लिये दर्शन-यात्रा कर रहे थे। जब भी लोगों का हुजूम एक-दुसरे को पार करता, “जय माता दी” का नारा गूँज उठता। चूँकि हमारे समूह में कई लोग वजनी भी थे अतः हमारे समूह कि औसत चाल बाकी के लोगों से थोड़ी कम थी। साथ ही साथ हम लोग बातें करते हुए धीरे-धीरे ही चल रहे थे। एक स्थान पर बने कैंटीन में हमने कुछ खाया-पिया ताकि आगे चढ़ाई के लिए कुछ उर्जा संग्रहित की जा सके! पर स्वामी जी के ईच्छा होते हुये भी, समोसा जैसी चीजें नहीं ली गयीं, और उन्हें खाने भी नहीं दिया गया। काफ़ी रास्ता तय कर चुकने के बाद मनीष, अरविन्द, स्वामी जी और कपिल ने अपने पैरों का थोड़ा सा मसाज़ भी करवाया। पूरे रास्ते भर ऐसे लोग मिलते ही रहे थे। यात्रा का रास्ता छांवदार एवं सुगम बन जाने के कारण, जो लोग कांवर या पालकियों में बैठाकर दर्शनार्थियों को ऊपर भवन ले जाया करते थे, अब बेरोजगार हो गये थे और फ़िलहाल मसाज़ करके ही अपना जीवन यापन कर रहे थे। मुझे यह देखकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि अत्यंत बुजुर्ग एवं थोड़ी बहुत शारीरिक अक्षमता के बावजूद लोग आगे बढ़ते चले ही जा रहे थे! शायद यह माँ के बुलावे का प्रताप ही था कि कोई भी बाधा उन्हें माँ के दर्शन करने से रोक नहीं सकती थी। अर्ध-राह में “गर्भ-जून” मंदिर पड़ा। ऐसी मान्यता है कि माँ ने उसी छोटी सी गुफा में नौ महीने रहीं थीं। चूँकि वहाँ कतार बहुत ही लंबी थी तो हमने तय किया कि अगले दिन वापिस आते समय इस गुफा-रुपी मंदिर के दर्शन करेंगे। रास्ते को और थोड़ा छोटा करने के लिए, ठाकुर और मैंने सीढ़ियों का बहुत इस्तेमाल किया, जो कि पहले का मुख्य रास्ता हुआ करता था। अंतिम तीन किमी बड़ा ही थकान वाला रहा। बहुत दिनों के बाद इतनी लंबी पैदल यात्रा और साथ ही नींद का प्रभाव क़दमों को बांध रहे थे, पर यह माँ का आशीर्वाद था कि क़दम एक-एक करके उठते और आगे बढ़ते ही चले जा रहे थे। रात लगभग ढाई बजे हम लोग ऊपर कालिका भवन पहुँचे। भवन के ऑफिस में रूम की रसीद देकर चाभी लायी गयी और तीसरे मंजिल की सबसे बड़े वाले कमरे में, जिसमें तीन डबल-बेड और अलग से एक गद्दा रखा हुआ था, जाकर पड़ गये। और साथ में यह तय हुआ कि थोड़ी देर सो लेते हैं और सुबह जल्दी तैयार होकर सुबह आठ बजे पवित्र गुफा के दर्शन करेंगे। 

अलार्म बजने से सुबह सबकी नींद खुली। नींद थोड़ी ही हो पायी थी फ़िर भी यह प्राणदायिनी थी; रात्रि की सारी थकान कहीं गायब हो गयी थी। सब नहा-धोकर तैयार हो गये और पहले से ही निर्धारित स्पेशल लाईन में जाकर खड़े हो गये! लगभग आधे घंटे के बाद माँ की पवित्र गुफा के अंदर पहुँचे और तीनों पिंडों के दर्शन प्राप्त हुये। मैंने माँ की छाया आँखों में भरकर प्रणाम किया और वापिस आने वाले रास्ते की ओर प्रसाद लेकर बढ़ गया। त्रिपिंड के बगल से ही बाणगंगा कअ एक छोटा सा सोता बहता है, उसे अंजुली में भरकर सर पर लगाते हुये मैं गुफा से बाहर निकल आया। इस अहसास को बयाँ करना बड़ा ही कठिन है कि दर्शन करके कैसा लगा? मानों, कुछ बाक़ी था, जो आज पूर्ण हो गया था। उसके उपरांत सबने भवन में ही बने भोजनालय में नाश्ता किया और पुनः कमरे में वापिस आकर सामान पैक करने लगे। ठाकुर और स्वामी जी नीचे ऑफिस जाकर ‘गर्भ-जून’ मंदिर में स्पेशल दर्शन के लिए वहाँ के ऑफिस में फ़ोन करवा आये। अब सब लोग बैग पीठ पर लादे “भैरोबाबा-मंदिर” के दर्शन के लिये चलना शुरू किये। यहाँ पूरी खड़ी चढ़ाई थी और हमने सीढ़ियों का ज्यादे प्रयोग किया। मंदिर के दर्शन के बाद सामने की छत पर खड़े होकर हमने कई सारे फ़ोटोज़ खींचें। वहाँ से सांझीछत पर बना हेलिपैड साफ़ दिख रहा था। कटरा से साँझीछत तक की हेलीकाप्टर सुविधा उपलब्ध है, पर फ़िर भी वहाँ से आख़िरी के दो-तीन किमी पैदल ही आना पड़ता है। 

पुनः माँ का जयकारा करते हुये हम लोग वापिस अपने रास्ते पर उतरने लगे, जो भैरोबाबा मंदिर के सामने से सीधे गर्भ-जून मंदिर कि ओर ले जाता था। अब ढलाव ज्यादा था, उर्जा ज्यादा नहीं लग रहा था, किन्तु पैर नहीं उठ रहे थे और ढलान पर उतरने से शरीर का सारा दबाव घुटनों पर ही पड़ रहा था। गर्भ-जून मंदिर पहुँचकर स्पेशल दर्शन के माध्यम से सब लोगों को तुरंत ही बिना कतार में खड़े हुये गर्भ-जून की गुफा से रेंग कर निकलने का मौका प्राप्त हो गया। अब यहाँ का सम्पूर्ण दर्शन पूरा हो चुका था। जब वहाँ से हम कटरा वापिस जाने के लिए नीचे ढलान की ओर आगे बढ़े तो वहाँ दो रास्ते दिखे! पहला तो वह, जिधर से हम आये थे जबकि दूसरा अभी नया-नया ही बन कर तैयार हुआ था। सचिन ने सुझाव दिया कि नया वाला रास्ता बहुत अच्छा है और छोटा भी है जिसमें एक निश्चित दूरी के बाद एक “तालकोटा” नाम की जगह पड़ती है, जहाँ से हमें ई-रिक्शा आदि मिल जायेगा। पैर जबाब दे रहे थे इसलिए सबको सचिन का सुझाव बहुत पसंद आया। आगे का कार्यक्रम यह था कि कटरा कुछ देर आराम करके हमें धर्मशाला के लिए निकलना था, गाड़ी कपिल ने कल ही बुक कर दी थी और हमने उसे दो बजे तैयार रहे को बोला था। हाँ यह अलग बात रही कि सचिन की बातें साड़ी निर्मूल साबित हुयी! जब हम तालकोटा पहुँचे तो वहाँ न कोई ई-रिक्शा आया और न ही यह रास्ता छोटा निकला और सबकी हालत बहुत ही खराब हो गयी। उधर टैक्सी वाले भाईसाहब फ़ोन पर फ़ोन किये जा रहे थे। वहाँ पूछने पर पता चला कि वह रास्ता हमें टाउन से बहुत बाहर लेकर जायेगा, लगभग पाँच किमी दूर। अरविन्द, कपिल, ठाकुर और मैं थोड़ा तेज चलना आरंभ किये और एक घंटे बाद आख़िरी छोर तक पहुँच गये। स्वामी जी, मनीष और सचिन अभी रास्ते में ही थे। हम लोगों ने ऑटो बुक किया और होटल पहुँचे। हामारी टैक्सी वहीँ खड़ी थी। उसमें सारा सामान रखकर सीधे ठीक उसी स्थान पर वापिस मुद चले जिधर से हम ऑटो से आये थे। हमारी टैक्सी जब तक वहाँ पहुँचती तब तक बाकी लोग भी उस रास्ते के आख़िरी छोर तक पहुँच ही गये थे। अब यह तय हुआ कि वापिस कटरा चाय-पानी आदि के लिए नहीं जायेंगे, अन्यथा धर्मशाला पहुँचने में काफ़ी देरी हो जायेगी। सब लोग गाड़ी में बैठे और सीधे धर्मशाला की ओर बढ़ चले। समय था शाम के साढ़े चार बजे! अपने प्लान से ढाई घंटा देर! लगभग चालीस किमी दूर एक छोटे से टाउन में आधे घंटे गाड़ी रुकवाकर हमने स्वामी जी की ईच्छापूर्ति की और सबने इसमें भरपूर साथ दिया। धर्मशाला जाने से पूर्व पठानकोट (पंजाब) नगर पड़ता है, जहाँ से पहाड़ी रास्ते शुरू होते हैं। पठानकोट में भी चाय-पानी के लिये हमनें एक छोटा सा ब्रेक लिया। उसके बाद धर्मशाला की ओर बढ़ चले। पठानकोट में हमारी गाड़ी बदली गयी थी, जो कि अब हिमाचल प्रदेश का एक स्थानीय ड्राईवर ही था। उसी को हमनें अपनी पूरी यात्रा के लिए बुक कर लिया। रात्रि १० बजे एक रेस्तरां के पास हमनें गाड़ी रुकवाई और रात्रि का भोजन किया। रात्रि साढ़े ग्यारह बजे हम धर्मशाला सर्किट हाउस पहुँचे। कमरों की चाभियाँ लेकर हम सब सीधे अपने-अपने कमरों में चले गये। मुझे तो थकान के कारण बिस्तर पर गिरते ही नींद आ गयी। 

अगले दिन सुबह नौ बजे हम सब तैयार होकर माता चामुण्डा देवी मंदिर की ओर उसी टैक्सी से बढ़ चले। निकलने से पूर्व मैंने सुश्री सुमन (नायब तहसीलदार एवं कार्यकारी अधिकारी, माता चामुण्डा देवी ट्रस्ट) जी से बात करके अपने आने की पूर्व सूचना दे दी। मंदिर पहुँचकर सबसे पहले ठाकुर और मेरा ११ वर्ष पूर्व किये हुये वायदे के अनुसार निश्चित धन (लंगर के एक दिन का पूरा खर्च) ट्रस्ट को दान किया। बाकी लोगों ने भी इसके अलावा अपनी तरफ से ट्रस्ट को दान किया। सुमन जी के सहयोग से मंदिर के अच्छे से दर्शन हुये एवं विधिवत पूजा भी संपन्न हुयी। तथा माँ के आशीर्वाद-स्वरुप माँ कि चुन्नी सबको मिली। ऐसी मान्यता है कि माँ ने यहीं पर चण्ड-मुण्ड नामक राक्षसों का संहार किया था, और इसी कारण माँ का नाम चामुण्डा माता पड़ गया। मंदिर पहुँचते ही २००७ के यात्रा की सारी झलकियाँ ताज़ा हो उठी थीं। मंदिर के बगल से ही बनेर नदी बह रही थी- अविचल, निर्मल, कल-कल की आवाज़ करती हुयी। २००७ की यात्रा के दौरान, नदी के बीच आकर रुके बड़ी-बड़ी शिलाओं पर हम न जाने कितनी देर बैठे रहे थे। तब नदी के किनारे कोई चहरदीवारी नहीं बनी हुयी थी और न ही नदी में जाने पर कोई रोक-टोक। पर अब नदीं के दोनों किनारों की ओर चहारदीवारी बनाकर उनमें गेट लगवा दिया गया था जिसपर हमेशा ताला बंद रहता था और लोगों के अंदर जाकर बैठने पर प्रतिबंध! पूछने पर पता चला एकाध बार फ़्लैश फ्लड में कुछ लोगों के बह जाने के कारण ऐसी व्यवस्था की गयी थी। नदी के दुसरे किनारे की ओर अब एक शांति-धाम (अंतिम यात्रा के लिए) बन गया था, जो पहले नहीं हुआ करता था। पर आज थोड़ी रिक्वेस्ट के बाद हमें आज्ञा मिल गयी और हम नदी के अंदर स्थित शिलाओं पर बैठकर काफ़ी देर तक बातें करते रहे। 

साढ़े ग्यारह बजे हमें सूचित किया गया कि लंगर का भोजन पूरी तरह से बन कर तैयार हो गया है। अतः हम सब मंदिर से लगभग आधे किमी दूर बने उस भवन की ओर बढ़ चले। पुरानी यादें फिर से ताज़ी हो उठी- ठीक वही शांति, वही सौम्यता! यहाँ की हरियाली केवल जमीन पर ही नहीं बल्कि लोगों के दिलों में सर्वत्र बिखरी पड़ी है। भवन के अन्दर पहुँच कर पता चला कि अभी तक यहाँ लंगर की व्यवस्था कॉन्ट्रैक्ट के आधार पर हुआ करता था एवं कांट्रेक्टर भोजन बाहर अपने भोजनालय में बनवाकर यहाँ ट्रस्ट को सप्लाई किया करता था। चूँकि अब कॉन्ट्रैक्ट ख़त्म हो चुका था एवं नया कॉन्ट्रैक्ट न बनने के कारण, ट्रस्ट ने ख़ुद ही भवन में लंगर बनाने का निर्णय लिया था और आज ही उसका पहला दिन था। यह माँ का आशीर्वाद ही था कि यह शुभ कार्य हम लोगों के हाथों से ही आरंभ होना था। लंगर की शुरुआत माँ अन्नपूर्णा के भोग लगाने से ही होती है, जो सबका पेट भरती हैं। इस शुभ कार्य का अवसर भी हम लोगों को प्राप्त हुआ। सबसे अधिक हर्षित स्वामी जी थे। भोग लगाने के उपरांत भंडारे में सर्वप्रथम पास के संस्कृत विद्यालय के छात्र बैठे जिन्होंने संस्कृत मंत्रों के उच्चारण से पूरे हॉल में एक विशिष्ट वातावरण तैयार कर दिया। उनके भोजनोपरांत, लोगों ने भी भोजन के लिये बैठना प्रारम्भ कर दिया। तब हम लोगों ने भी भोजन परोसने के लिये एक-एक बर्तन/ बाल्टी उठा ली- किसी ने सब्जी की, किसी ने दाल की तो किसी ने खीर की; और फिर सबको बड़े ही आदरभाव से परोसकर खिलाने लगे । तत्पश्चात हम लोग भी वहीं पात में बैठकर खाने लगे। क्या स्वादिष्ट भोजन था! शायद वर्षों के मन की भूख आज ही मिटनी थी। बाद में अपनी-अपनी थालियाँ धुलकर एवं सबको धन्यवाद देकर वहाँ से धर्मशाला के बौद्ध मंदिर चले आये। मौन की उर्जा थोड़ी देर ग्रहण करते रहे और बाद में ठाकुर हम सबको इसके शिल्प के बारे में बताता रहा। वहाँ से निकलकर हम सब धर्मशाला में स्थित अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम पहुँचे। कितनी खूबसूरत जगह पर यह स्टेडियम बना हुआ है, एकदम अनूठा। लगभग आधे घंटे वहीं स्टेडियम में टहलते और बाते करते हुये बिताया गया। धर्मशाला मार्केट पहुँचकर हम लोगों ने स्वामी जी की ईच्छा का आदर किया और उनके साथ ही सबने चाय, जलेबी, समोसे और कचौड़ियों का लुत्फ़ उठाया। उत्तर भारत के जैसे समोसे और जलेबी तमिलनाडु में नहीं मिलते, इसलिये इसका स्वाद लेने में मैं कम से कम आज स्वामी जी के समतुल्य था। मार्किट में एक घंटे बिताने के बाद हम सब वापिस पठानकोट की ओर बढ़ चले। सामान तो सुबह ही गाड़ी में रखवा लिया गया था। 

पठानकोट पहुँचते-पहुँचते साढ़े सात बज चुके थे। हम लोग सीधे मेरे एक मित्र और बैच-मेट श्री कुलवंत सिंह, जो पठानकोट में नगर-निगम आयुक्त के पद पर आसीन थे, के आवास पर पहुँचे। प्रशिक्षण के दिनों की यादें ताज़ा हो आयीं। कुलवंत पाजी की बातें सुनते और जायकेदार भोजन का स्वाद लेते हुये कब घड़ी ने रात्रि के एक बजाये, पता ही नहीं चला। अब कुलवंत जी से हमने आज्ञा ली और उन्होंने गाड़ी से हमें रेलवे स्टेशन पहुंचवाया। थोड़ी ही प्रतीक्षा के बाद हमारी ट्रेन आ गयी और हम सब अपनी-अपनी सीटों पर पड़ते ही सो गये। रात्रि में ही कुछ स्टेशन के बाद सचिन एवं मनीष उतर गये, क्योंकि उन्हें चंडीगढ़ जाना था। 

सुबह नौ बजे हम लोग दिल्ली स्टेशन पहुँचे। स्वामी जी और कपिल स्टेशन से ही अपने-अपने घर की ओर निकल गये। ठाकुर, अरविन्द और मैं एक कैब में बैठकर अरविन्द के घर चले आये। दो दिन रुककर मैं यात्रा की थकान मिटाता रहा और उसके बाद वापिस तमिलनाडु लौट आया। 

सच कहूँ तो यह यात्रा केवल धार्मिक नहीं थी। सात लोग एक साथ एक ही रंग में सारी दुनिया से बेखबर होकर जिस तरीके से मुक्त रहे थे उसी मुक्तता की चाह में जाने कितने भटककर रह जाते हैं और उन्हें मिल नहीं पाता। पर हम सौभाग्यशाली रहे थे और सबके मन का कम से कम कुछ भार तो कम हुआ ही था और सबसे बड़ा भार कम हुआ था ठाकुर का। हाँ वही- पारले जी वाला!!

अमर कुशवाहा २५.०१.२०२१

3 comments:

Anonymous said...

Great memoir! The expressions are rich and live as life itself. May goddess Durga bless all of us!!

AMAR KUSHAWHA, IAS said...

Thanks a lot for your kind words..

Anonymous said...

पारले जी।
मज़ा आ गया।