Tuesday, March 31, 2020

सर्वहारा

मैं भी चाहता था मसीहा होना
ग़रीब और मज़लूमों का
इससे पहले कि सर्वहारा
सब कुछ हार जाये।

मैं जानता हूँ कि
'सब कुछ'हारने के लिये
'कुछ' होना भी चाहिये!

इन शब्दों के चक्रव्यूह से
अब निकल जाने दो इन्हें!
इन्हीं शब्दों के जाल में
उलझकर रह गयीं इनकी
पीढ़ी दर पीढ़ियाँ!

सबने रोटी ही सेंकी है
इन्हें धूप में जलाकर!
यह अन्तर कभी ख़त्म नहीं होगा!
चाहें तो लिख लो
या फिर,
शिलालेख ही गढ़वा लो
मैं रहूँ, न रहूँ,
मेरे ये शब्द रहेंगे!
कोई इस गड्ढ़े को नहीं पाटेगा!

यह 'सब कुछ' और
'कुछ' के बीच जो अन्तर है
वह है इनकी 'देह'!
किसी को उसका पसीना चाहिये
किसी को रक्त!
बस!


-अमर कुशवाहा

Monday, March 23, 2020

बिछड़ा-पुराना...


तेरा मिल सकने का बहाना याद आता है

क्या तुम्हे भी कोई बिछड़ा-पुराना याद आता है?

 

हुयी जब धुप थी तीखी और परेशां सा मैं था

तेरा लोरी गाकर मुझको सुलाना याद आता है!

 

तेरी तस्वीर जब देखूं तो मुझमें साँस आती है

तेरा सुर्ख आँखों में काजल लगाना याद आता है!

 

कभी जब झीनी झरोखों से हवा गुजर कर आती है

तेरे होंठों पर जो था बिखरा तराना याद आता है!


हिचकी कभी आये तोअमरअब चौंक उठता है

तेरा वो छिप-छिप कर मुझको डराना याद आता है!


-अमर कुशवाहा