Monday, March 9, 2015

केवल तुम

बस शमां लाने का कुछ मैं जतन कर दूँ

चाहता हूँ पल भर के लिये रौशन कर दूँ!

 

कितने ख़ामोशी में बैठे हो अंधेरों में

एक मुस्कान पर ख़ुद को दर्पण कर दूँ!

 

निहार सकों तुम खुल के आसमाँ सारा

सूरज को इस क़दर मैं शीतल कर दूँ!

 

पहुँच सको बेहिचक अपने मक़ाम तक

हाथों से पहाड़ों को मैं ओझल कर दूँ!

 

बहुत मासूमियत से हैं सवाल तेरेअमर

आओ जबाबों से तुझे मैं बोझल कर दूँ!

-अमर कुशवाहा

Saturday, March 7, 2015

नहीं है इस युद्ध की शाम

जीवन की हलचल राहें हैं दामन की खुली बाहें हैं

रुकना तेरा लक्ष्य नहीं सर्वव्यापी उसकी निगाहें हैं

जब बात आयी थी सपनो की तो सबसे आगे तू ही था

शुरुआत अगर कर ही दी है तो घेरे तुझको क्यों साये हैं?

 

बड़ी उम्मीदें थी तुझसे जब चिंगारी को जलाया था

अपने क़दमों के हुंकार से ज्वाला को लहराया था

वही कदम हैं वही हैं राहे तो आज तू रुका क्यों हैं?

याद कर उस चोटी को जिस पर ध्वज फहराया था!

 

अपने हाथों की ताकत से जंजीरों को तोडा था

कर-कमलों के एक प्रहार से चट्टानों को फोड़ा था

पर आज तेरे हाथों को पुष्प-हारों ने बाँध रखा है

कभी अपने निश्चय से हवाओं का रुख मोड़ा था!

 

सारे तेरे अंग वही है तो क्यों विचलित अब है?

तेरे इस अग्निपथ को निहार रहे अब सब हैं

तोड़ दे मादकता का बंधन छेड़ दे फ़िर संग्राम

जीवन भर लड़ना है नहीं हैं इस युद्ध की शाम!


-अमर कुशवाहा