हर तरफ़
है बिखरा भेद-भाव
कहीं है
धड़ कहीं रुधिर स्त्राव
संताप रही
भारत माँ
की आँखें
देख आर्यों का विपरीत बहाव!
राजतंत्र का
अंत, फ़िर
लोकतंत्र
लोक हुआ
गायब है
यह कैसा मंत्र?
भ्रष्टाचारी बयार बह रही
देश में
भारत-भाग्य के हाथों क्यों ऐसा
यंत्र?
नौकरशाही की
दिशा में
हो रहा
है परिवर्तन
केवल अधिकारों की बात,
नहीं कर्तव्य का बर्तन
खीर पाक
रही विकास की बीरबली अंदाज़ में
कितना धन
कोई कैसे निकाले बस
यही मंथन!
शिक्षा के
स्तर में
खाई सी
गिरावट
बिन शिक्षा प्राप्त उपाधियों की मिलावट
कभी शुल्क की मारामारी कभी आरक्षण
ज्ञान छोड़
आती केवल अंको की
आहट!
इतनी सारी योजना और
कृषि का
पिछड़ापन
किताबी आकड़े झूठे, नहीं वे सत्य का आनन्
ग़रीब और
ग़रीब हो
रहा, अमीर और अमीर
अर्थ समाज में अब
और मिटा रहा अपनापन!
कहाँ मिली आज़ादी सन
सैंतालिस में
हाथों की
बेड़ी टूटी पर पाँव हैं जंजीरों में
तोड़ सकें ये बाधायें वह मन
अब कहाँ गया?
कैसे बिखरे हरियाली अब
भारत के
आँगन में!
-अमर कुशवाहा