Saturday, July 7, 2012

वर्षा-ऋतु

आज श्रावण का अरुण-विहीन
दिवा अमावास की रात सा
प्रकाश के तन पर आसीन!
मेघ की स्वर्णिम कालिमा
द्युत आलोक में कौंध रही
आँचल अपना खोल रही!

सलिल-धूलि-कण का संगम
समीर के बंधन में बहका
दूर कहीं बिहंगम चहका!

टूट पड़े फ़ल पा तरुणाई
साथ गर्ज़न के है निर्मल
कल-कल-कल छल-छल-छल!

सीमाओं की सारी लघुता
पास हुयी और प्रगाढ़
पाकर बूँदों की आड़!

मोर नाचते अनंत ओर
पीहू व नवकल्पों का शोर
नहीं बंधन की कोई डोर!


-अमर कुशवाहा

Friday, April 13, 2012

मैं अधूरा

आधा जीवन आधी कहानी

आधे स्वप्न आधी निशानी

सम्पूर्ण शरीर व्यक्तित्व चूरा

मैं अधूरा!

 

चले थे कई साथ में, एक से विश्वास में

लक्ष्य तक पहुँचे सभी, मै रहा परिहास में

श्याम हुये वस्त्र मेरे, रंग भूरा

मैं अधूरा!

 

आधार के निर्माण में मृदा रहा खींचता

गारा बनाने के लिए श्वेद से मैं सींचता

सूर्य की चमक बढ़ी, सब रहा झूरा

मैं अधूरा!

 

जले हुये हैं हाथ मेरे, पके हुये अब बाल मेरे

पलकों का भार उठ रहा लड़खड़ाते चाल मेरे

सब कुछके चाह मेंकुछ हुआ पूरा

मैं अधूरा!

-अमर कुशवाहा

Sunday, February 5, 2012

आज का भारत

 हर तरफ़ है बिखरा भेद-भाव

कहीं है धड़ कहीं रुधिर स्त्राव

संताप रही भारत माँ की आँखें

देख आर्यों का विपरीत बहाव!

 

राजतंत्र का अंत, फ़िर लोकतंत्र

लोक हुआ गायब है यह कैसा मंत्र?

भ्रष्टाचारी बयार बह रही देश में

भारत-भाग्य के हाथों क्यों ऐसा यंत्र?

 

नौकरशाही की दिशा में हो रहा है परिवर्तन

केवल अधिकारों की बात, नहीं कर्तव्य का बर्तन

खीर पाक रही विकास की बीरबली अंदाज़ में

कितना धन कोई कैसे निकाले बस यही मंथन!

 

शिक्षा के स्तर में खाई सी गिरावट

बिन शिक्षा प्राप्त उपाधियों की मिलावट

कभी शुल्क की मारामारी कभी आरक्षण

ज्ञान छोड़ आती केवल अंको की आहट!

 

इतनी सारी योजना और कृषि का पिछड़ापन

किताबी आकड़े झूठे, नहीं वे सत्य का आनन्

ग़रीब और ग़रीब हो रहा, अमीर और अमीर

अर्थ समाज में अब और मिटा रहा अपनापन!

 

कहाँ मिली आज़ादी सन सैंतालिस में

हाथों की बेड़ी टूटी पर पाँव हैं जंजीरों में

तोड़ सकें ये बाधायें वह मन अब कहाँ गया?

कैसे बिखरे हरियाली अब भारत के आँगन में!


-अमर कुशवाहा