Thursday, July 18, 2013

तनहाईयाँ

किस मझधार में फँसा दिया मुझे बहलाकर

कि ख्व़ाब टूटे हैं मगर बहुत ही तड़पाकर!

 

हवायें कभी क़िश्ती को किनारे पहुँचाती थीं

तूफ़ा ने अंदर ही ढ़केला मुझे मुस्कराकर!

 

चीथड़े लिबास में जब जा पहुँचा शहर में

मायूसियों में बंद हुयीं थी किवाड़ें घबराकर!

 

दूजों को कभी खुद्दारी सिखलायी थी जिसने

नाकामियों से ढँक गया अब देखो शरमाकर!

 

आज है ख़ामोश लोगअमरजिसे कहतें हैं

ऐसी तनहाइयाँ घिरी हैं वहाँ पंख फड़फड़ाकर!

-अमर कुशवाहा

Saturday, July 13, 2013

अशांत

मैं अशांत हूँ या फ़िर चंचल

कहीं भी मन ठहरता नहीं!

असका दायरा बहुत ही बड़ा है

इसने घेरा डाल रखा है मेरे घर

बाहर तो इसका अधिकार सिद्ध है!

मैं निकलना चाहता हूँ

इस अशांत के पीछे छिपे सूनेपन से

समेट लेना चाहता हूँ

शान्ति की हर एक बूँद!

सागर सही,

एक कुआँ तो भर ही सकता है!

सागर ने कब बुझायी है

किसी की प्यास?

हर क्षण कितनी ही नदियों का

मीठा जल समेटता है अपने अंदर

किन्तु रह जाता है

फ़िर भी, खारा का खारा!

सोचो! कितने युगों से

वह प्यासा है?

मैं भी अब,

सागर हो गया हूँ!

-अमर कुशवाहा