किस मझधार में फँसा दिया मुझे बहलाकर
कि ख्व़ाब टूटे हैं
मगर बहुत ही तड़पाकर!
हवायें कभी
क़िश्ती को
किनारे पहुँचाती थीं
तूफ़ा ने
अंदर ही
ढ़केला मुझे मुस्कराकर!
चीथड़े लिबास में जब
जा पहुँचा शहर में
मायूसियों में
बंद हुयीं थी किवाड़ें घबराकर!
दूजों को
कभी खुद्दारी सिखलायी थी
जिसने
नाकामियों से
ढँक गया
अब देखो शरमाकर!
आज है
ख़ामोश लोग
‘अमर’ जिसे कहतें हैं