Saturday, November 9, 2013

इबादात

आठो पहर जब भी कभी इबादात होती है

तब जाकर इश्क में कहीं इशारात होती है!

 

कुछ तो बात ज़रूर है उनकी निग़ाह में

यूँ ही नहीं जिंदगी से मुलाक़ात होती है!

 

सर्द मौसम और तिस पर तनहा सा दिल

यूँ ही नहीं महफ़िल में खिदमात होती है!

 

वो रौशनी से बन गये मेरी वीरानियों के

यूँ नहीं शमां के जलने से रात होती है!

 

अमरकैसे बयाँ करे उनके दर्द--सितम

यूँ ही नहीं किसी के ज़ख्मों में बात होती है!

-अमर कुशवाहा

पैमाना

आज बरसो कि महफ़िल मयखाना बने

नज़्म छेड़ो ऐसी कि कोई तराना बने!

 

उनके पायल की झनकार सुनायी दी है

दीदार उनका हो जाये तो अफ़साना बने!

 

हम तो बे-गैरत हैं करते क्यों परवाह?

डूब जाने दो इतना कि नया ज़माना बने!

 

समंदर की प्यास मुझे यहाँ ले आयी है

वो चाहते हैं कि सहरा में आशियाना बने!

 

आज साकी को रहा अभी होशअमर

कुछ तो जहाँ में सबर का पैमाना बने!


-अमर कुशवाहा