Saturday, November 9, 2013

इबादात

आठो पहर जब भी कभी इबादात होती है

तब जाकर इश्क में कहीं इशारात होती है!

 

कुछ तो बात ज़रूर है उनकी निग़ाह में

यूँ ही नहीं जिंदगी से मुलाक़ात होती है!

 

सर्द मौसम और तिस पर तनहा सा दिल

यूँ ही नहीं महफ़िल में खिदमात होती है!

 

वो रौशनी से बन गये मेरी वीरानियों के

यूँ नहीं शमां के जलने से रात होती है!

 

अमरकैसे बयाँ करे उनके दर्द--सितम

यूँ ही नहीं किसी के ज़ख्मों में बात होती है!

-अमर कुशवाहा

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