१.
बड़े ज़ोर-शोर से मुनादीं करवाई जा रही थी
कि शहर में आयोजन होना था दुनिया के सबसे बड़े मेले का
और फिर पूरे शान-औ-शौक़त से निकलेगी राजा की सवारी
जिसे अपने राजा होने का अतिशय ही दंभ था।
सारा शहर झूम रहा था, मानों
स्वर्ग से हो रही हो वर्षा -सोमरस एवं पुष्पों की!
शहर ज़रूर चमक रहा था, पर गौर से देखने पर दिखतीं थी
चारों तरफ़ चलती-फिरती लाशें, बिन आँखों के,
जो देख तो नहीं सकते थे पर ख़ुश थे मेले के आयोजन पर।
किसी मंत्री ने मंच पर चढ़कर राजा को देवराज इंद्र की उपाधि दे डाली,
क्योंकि उसके अनुसार शहर अब स्वर्ग बन चुका था।
किसी दूसरे ने उद्घोषणा की की राजा में त्रिदेव की झलक मिलती है;
भले ही तीनों देवों को मिलाकर पुराणों में कोई अवतार ही न रहा हो।
किसी को राजा में पंचतत्व का जनक दिखा तो किसी को
कलियुग में कल्कि का अवतार,
जिसका जन्म कलि के ताप को हरने के लिए हुआ था।
हर एक प्रशंसा पर राज का सीना और भी चौड़ा होता जा रहा था।
जहाँ तक भी लोमड़ियों और बंदर सरीखों जैसे मानवों की पहुँच थीं,
वहाँ तक इस सबसे बड़े मेले की ख़बर पहुँचाई जा रही थे।
२.
वहीं मेला-स्थल से कुछ दूरी पर,
ज़्यादा दूर नहीं, बस कुछ ही दूर, जिसे
ढँक दिया गया था, बरसातियों से, परदो से,
के ठीक दूसरी तरफ़ बहता था एक नाला,
बड़ा सा, मैला, बदबूदार, बज़बाजाता, और
उससे सटी, ठीक पास में ही अनेकों झोंपड़े।
नंगे-धडंगें, मिट्टी-कीचड़ में लोटपोट जहाँ खेल रहे थे कुछ बच्चे।
वहीं पास के ही एक टूटे हांड़ी में रखे पानी से
गंदे बर्तनों को धो रही थी उनकी माँ, और
अंदर बीमार खो-खो कर ख़ासता हुआ उनका बाप।
दौड़ रहीं थी कुछ बकरियाँ और मुर्गियाँ उन्हीं गंदी गलियों में
और थे कुछ कुत्ते, भूखे, मरियल से, जो बस भौंकते जा रहे थे।
टूटी-फूटी झोपड़ियाँ और अंदर बिखरे हुए सामान इधर-उधर
मुन्ना के फटे हुए पैंट के कपड़े का बना हुआ बस्ता,
और लटका हुआ अरगनीं पर फटे-पुराने सबके कपड़े,
ज़मीन पर एक किनारे फ़ैला कर रखा हुआ पुआल, जिसपर सोता था
पूरा परिवार थक-हराकर,और अभी लेटा था खाँसता हुआ बाप।
वहीं एक कोने में बंधी थी बकरी, और उसके दूसरी ओर
मिट्टी का चूल्हा एवं उसमें बिखरी हुई राख़,
और पास में पड़े कुछ ख़ाली बर्तन।
३.
और फिर होता है राजा का भाषण! एक-एक कर चुने हुए शब्द, या फिर
भविष्यवाणी और झूठ की चाशनी में पिरोए हुए अनेकों टूटे ख़्वाब!
सब खिलखिला उठते हैं मेले में, नारे लगाते हैं,
जय-जयकार होता है राजा का, राजा और भी गर्वित हो उठता है!
फिर फूटते हैं पटाखें और रौशनी फैल उठती है आसमान में,
आसमान रंग-बिरंगी हो उठता है मानों नृत्य करता हो, और
पहुँचाना चाहता हो राजा की कीर्ति स्वर्ग- मण्डल तक।
कि वही रौशनी देख कर दौड़ पड़ते हैं, उसे पकड़ने को
उस पार के वही नंग-धडंग और कीचड़ में लिपटे हुये बच्चे, कि
बर्तन माँजना छोड़, दौड़ कर पकड़ लेती है उनकी माँ और बचा लेती है
नाले में गिरने से, और समझाती है बच्चे को और ख़ुद को भी,
कि यह केवल नाला ही नहीं, यह खाई है खाई!
और खाइयों में नाव-पतवार नहीं चलती!
हम कितनी भी कोशिश क्यों न कर लें, कोई भी
उस शहर का हमें यह पार नहीं करने देगा!
और मायूस सा सिसकता हुआ बचपन चिपक जाता है माँ की छातीं से
और ढुलक पड़ते हैं माँ की आँखों से अश्रु के दो बूँद!
-अमर कुशवाहा
०९/०८/२०२३