Thursday, January 9, 2014

सूखा कुआँ

पहले रिमझिम सी बारिश थी

सूखा कुआँ तब हरा था

बुझाता था सबकी प्यास!

उसके लिये सब बराबर थे

कुछ दूब भी उग आयी थी

उसकी परिधि के चारों ओर

उसने मिट्टी को नमीं दी थी, और

निर्माण किया था अपने चारों ओर

हरियाली का, तृप्ति का!

समय ने एक करवट ली!

कब रुका ही है समय

किसी एक बिंदु पर?

सूर्य की चमक तेज़ हो गयी

और तेज, बहुत तेज!

सूख गया सूखा कुआँ!

मिट्टी में पपड़ियाँ पड़ गयीं

हरी दूब भी सूख गयी!

अब सूखा कुआँ सूखा है

हरियाली है ही तृप्ति!

बस प्रतीक्षा है उसे

समय की एक और करवट का!


-अमर कुशवाहा