मेरे छत के पाईप से
हर बरसात में
पानी की
मोटी धार
गिरती है
और मैं
देखता हूँ
कृत्रिम-प्रकृति का संगम!
मुझे मेरी चौहद्दी में
ही
एक झरना मिल गया
है!
लगाया है
मैंने, अशोक, ताड़,
आम, अमरूद, केला, गुड़हल,
गेंदा और
गुलाब!
घर के
पीछे की
ज़मीन
उबड़-खाबड़ है,
यही मेरा हिमालय है!
अमरनाथ की
यात्रा
बाबूजी के
पैर दबाकर होती है
और माँ
के गोद
में सिर
रखकर
गंगोत्री भी
पहुँचता हूँ!
फ़िर, हमारे ह्रदय से
प्रेम की
गंगा-यमुना भी निकलती है
जिसमें हर
क्षण नहाकर
हम नितांत शुद्ध हैं!
-अमर कुशवाहा