हर नज़र से मिले हर शहर से मिले
नफ़रत ही
सही मगर
दिल से
मिले!
रौशनी की
चादर अब
हवाओं से
फटी
बिछती है
जमीं मगर
बिना ही
सिले!
अंदर जो
ग़ुबार है
बाहर न
तू निकाल
यूँ हीं
जाया नहीं करते शिकवे औ गिले!
धूप बस
जलती रही
ग़म बराबर उठे
जिनको महकना ही था
अचानक खिले!
देखने को
आरज़ू मचलती रही ‘अमर’
-अमर कुशवाहा