Monday, May 9, 2011

जिनको महकना था

हर नज़र से मिले हर शहर से मिले

नफ़रत ही सही मगर दिल से मिले!

 

रौशनी की चादर अब हवाओं से फटी

बिछती है जमीं मगर बिना ही सिले!

 

अंदर जो ग़ुबार है बाहर तू निकाल

यूँ हीं जाया नहीं करते शिकवे गिले!

 

धूप बस जलती रही ग़म बराबर उठे

जिनको महकना ही था अचानक खिले!

 

देखने को आरज़ू मचलती रहीअमर

क़दम हमारे मगर बेमौत ही जा छिले!

-अमर कुशवाहा