Tuesday, July 24, 2018

बिछड़न...

इनकार किया फ़िर भी इसरार का मंजर रखते थे

जख्मों पर मरहम फैलाकर हाथों में खंजर रखते थे!

 

कंगन की खन-खन से कब तक ख़ुद को बहलाता?

चेहरे पर फ़ैली रहती हँसी नजरों में महज़र रखते थे!

 

ख्व़ाब दिखे आख़िर कैसे नींद का आना जरूरी था

माथे को थपकी देते थे पर मन को ख़ुद-सर रहते थे!

 

लिपटाकर भी दूर रखा था अपने मन के भावों से

था इश्क में डूबा दिल पर अधरों पर नश्तर रखते थे!


'अमर' अभी भी शेष वही है जैसा कि तुम छोड़ गये

मिलन का आसरा देते थे बिछडन महशर में रखते थे!


-अमर कुशवाहा

Monday, July 16, 2018

पुरानी टीस...

काफिरों पर भी खुदपरस्ती का असर हो पाये

बरसा दे इतनी मोहब्बत कि वो मयस्सर हो पाये!


जिधर देखूं तिधर उसी का नूर नजर आये

निशा का बाकी  कोई फ़िर बसर हो पाये!


पुरानी टीस के आँसूं पलकों पर छलक जायें

ग़र बीते लम्हों का कोई फ़िर से कसर हो पाये!


मिटाना इश्क में हस्ती पर जो कोई अड़ जाये!

जमाने से बस कुछ ही ऐसे बे-असर हो पाये!


ज़न्नत का सुकूं जमीं पर मिल जायेअमर

अगर सहरा का समंदर सा कुछ हसर  हो पाये!


-अमर कुशवाहा

Wednesday, July 4, 2018

सब्ज़बाग़...

सब्ज़बागों की हरी छाँव दिखाओ मुझको

मैं बरसा हुआ बादल हूँ बुलाओ मुझको!

 

शाख़--दिल में कभी गुल खिला करते थे

अनजानी राहों पर दो परिंदे मिला करते थे

बीते हुये पलछिन अब याद आओ मुझको

मैं बरसा हुआ बादल हूँ बुलाओ मुझको!

 

हाथों को पकड़ ऐसे ही कहे थे कुछ लफ्ज़ तुमने

टूटे हुये ख़्वाबों की छनक सुने थे हाँ मैंने

आसरों की तासीर अब समझाओ मुझको

मैं बरसा हुआ बादल हूँ बुलाओ मुझको!

 

ख़ुदी से बेख़ुदी के कठिन सफ़र में

मैं दरिया था कभी बहता हुआ समंदर में

सूखे रेत के जर्रों पर बहाओ मुझको

मैं बरसा हुआ बादल हूँ बुलाओ मुझको!

 

सब्ज़बाग़ों की हरी छाँव दिखाओ मुझको

मैं बरसा हुआ बादल हूँ बुलाओ मुझको!

-अमर कुशवाहा

Monday, July 2, 2018

नासूर...

ज़ख्म शमशीर  का हो गहरा तो भी भर जाता है

दर्द अपनों का दिया हो तो नासूर बन आता है!

 

कभी एक पल, कोई एक शब्द, कभी एक बात

रिस-रिस कर चुभता हुआ ताउम्र तड़पाता है!

 

माथा रगड़-रगड़कर जिसकी इबादत की मैंने

ठोकर रात के अंधेरे में पत्थर वही लगाता है!

 

ग़र लगाव का मरहम हो तो नजदीकियाँ बढ़ें

पत्ता थपेड़ों की मार से शाखों से टूट जाता है!

 

इस सिलसिले का मरतबा समझा नहींअमर

चाहकर कोई अपनों से कैसे दूर हो पाता है?


-अमर कुशवाहा