सब्ज़बागों की हरी छाँव न दिखाओ मुझको
मैं बरसा हुआ बादल हूँ न बुलाओ मुझको!
शाख़-ए-दिल में कभी गुल खिला करते थे
अनजानी राहों पर दो परिंदे मिला करते थे
बीते हुये पलछिन अब न याद आओ मुझको
मैं बरसा हुआ बादल हूँ न बुलाओ मुझको!
हाथों को पकड़ ऐसे ही कहे थे कुछ लफ्ज़ तुमने
टूटे हुये ख़्वाबों की छनक सुने थे हाँ मैंने
आसरों की तासीर अब न समझाओ मुझको
मैं बरसा हुआ बादल हूँ न बुलाओ मुझको!
ख़ुदी से बेख़ुदी के कठिन सफ़र में
मैं दरिया था कभी बहता हुआ समंदर में
सूखे रेत के जर्रों पर न बहाओ मुझको
मैं बरसा हुआ बादल हूँ न बुलाओ मुझको!
सब्ज़बाग़ों की हरी छाँव न दिखाओ मुझको
-अमर कुशवाहा
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