Wednesday, July 4, 2018

सब्ज़बाग़...

सब्ज़बागों की हरी छाँव दिखाओ मुझको

मैं बरसा हुआ बादल हूँ बुलाओ मुझको!

 

शाख़--दिल में कभी गुल खिला करते थे

अनजानी राहों पर दो परिंदे मिला करते थे

बीते हुये पलछिन अब याद आओ मुझको

मैं बरसा हुआ बादल हूँ बुलाओ मुझको!

 

हाथों को पकड़ ऐसे ही कहे थे कुछ लफ्ज़ तुमने

टूटे हुये ख़्वाबों की छनक सुने थे हाँ मैंने

आसरों की तासीर अब समझाओ मुझको

मैं बरसा हुआ बादल हूँ बुलाओ मुझको!

 

ख़ुदी से बेख़ुदी के कठिन सफ़र में

मैं दरिया था कभी बहता हुआ समंदर में

सूखे रेत के जर्रों पर बहाओ मुझको

मैं बरसा हुआ बादल हूँ बुलाओ मुझको!

 

सब्ज़बाग़ों की हरी छाँव दिखाओ मुझको

मैं बरसा हुआ बादल हूँ बुलाओ मुझको!

-अमर कुशवाहा

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