Wednesday, December 18, 2019

हालात-ए-शहर...

कई  गलियाँकई  मकांपैमानें बहुत हैं

ये  मेरा शहर  है जहाँ  दीवानें  बहुत   हैं। 

 

ख़ुदी  में  इस  तरह  सब  डूब  से  गये हैं

हालात-  -शहर  में  अनजाने  बहुत  है।

 

नफऱत भरी निग़ाह हाथों में लिये ख़ंजर

नशे की नई दस्तूर के मय-ख़ाने बहुत हैं।

 

घर राम का जले  या ऱहीम का हो ख़ाक

उठते धुयें  में  बिख़रे अफ़साने बहुत  हैं।


एक दीया मज़ार पर जला दे ज़रा 'अमर

यहाँ हैवानियत के बढ़ते परवाने बहुत हैं।

-अमर कुशवाहा

Wednesday, July 17, 2019

एक ग़ज़ल_१७.०७.२०१९


ख़्वाबों की बुलंदी से हमें भरमाया करो

अपने शीशे के महल पर इतराया करो!

 

बुझते आफ़ताब में जिनकी बिखर जाये चमक

ऐसे ज़ज्बात भूले से भी घर लाया करो!

 

बारहा सिलने पर भी जो उधड़ जाते हों

ऐसे धागों पर रिश्तें कभी बनाया करों!

 

जिस मय कि आशिकी में हो घर से अदावत

मेरे साकी ऐसी शराब  कभी पिलाया करो!

 

जिसके अहसास से आँखें नम हो जायेअमर

ऐसी तस्वीर दीवाने को दिखाया करो!


-अमर कुशवाहा

Monday, July 15, 2019

तुमको देखा करते हैं...

पूनम में नहाया चाँद देख ख्व़ाब को देखा करते हैं

तस्वीर तेरी आगे रख कर हम तुम को देखा करते हैं!

 

झपकी पलकें उनींदी आँखें दीदार तुम्हारा करते हैं

जिस राह गुज़रते हो अक्सर उस राह को देखा करते हैं!

 

जब आँख खुली तो हमने पाया नींद सिरहाने छूट गयी

धीरे-धीरे बुझती जाती हम रात को देखा करते हैं!

 

रस्मों कि ज़रूरत हैं क्यों फ़िर जब रूह मिली है तुमसे

जिसकी छाँव में प्रेम पला उस बाग़ को देखा करते हैं!

 

इकरार--वफ़ा का मतलब जाने कब समझेंअमर

अधरों के कोनों में बिखरी मुस्कान को देखा करते हैं!


-अमर कुशवाहा

Thursday, March 14, 2019

तुम्हें ख़ूब आता है...

कागज़ पर सोई स्याही से लड़ना तुम्हें ख़ूब आता है

हँसते-हँसते आँखों में आँसूं भरना तुम्हें ख़ूब आता है!


नज्में जो लिखे नींदें खोकर एक-एक कर बिखर गये

अक्षर-अक्षर चुन-चुन कर सिलना तुम्हें ख़ूब आता है!


आधी रात को जागा चंदा जाने कब तक तपता है

डार से बिछुड़ें हुये प्रेम में जलना तुम्हें ख़ूब आता है!


एक साँस मेरी मुझसे ही रूठकर कहीं सिरहाने छूट गयी

आँचल में सुलाकर के चहरा डरना तुम्हें ख़ूब आता है!


ये मौज--मोहब्बत जाने किस साहिल पर ठहरेअमर

चलती-फिरती राह से आख़िर मुड़ना तुम्हें ख़ूब आता है!


-अमर कुशवाहा

Friday, January 11, 2019

विसंगति...

जान का देखो मोल कहीं पर

कहीं साँस है खोटी रे!

बिखरे पड़े कहीं पिज्जा-बर्गर

कहीं सूखी-चिपड़ी रोटी रे!

 

कहीं शाम है भीगी फ़व्वारे से

कहीं फ़सल पड़ी है परती रे!

सत्ता की चर्चा छिड़ी कहीं पर

कहीं रातें बीती सिसकती रे!

 

कहीं दिखें बच्चे हाथी से

कहीं हाड़-मांस का लोथा रे!

हद से ज्यादा कनक कहीं पर

कोई पाई-पाई को रोता रे!

 

कहीं अंग्रेज़ी के बोल खिले

कहीं टाट पर फ़ैली शिक्षा रे!

कहीं फ़ोन पर डॉक्टर हैं आते

कहीं मिलती हैं केवल भिक्षा रे!

 

हल-वालों की बिसात ही क्या?

बैलों का पिंजर दिखता रे!

छोटे-छोटे क़र्ज़ तले जब

घड़ी-घड़ी वह बिकता रे!

 

कहीं मौका है आगे बढ़ने का

कहीं बिखरी अर्थ की लाठी रे!

कहीं शान से सोना-उठना

कहीं रात में केवल फाँसी रे!

 

चला गया जो चला गया

कौन रहा फ़िर बाकी रे!

दुःख-भूख में रोते छप्पर वाले

कोई संगी साथी रे!

 

कुछ दिन चर्चा अखबारों में

अलग-अलग सब बोली रे!

फ़िर चुपके से कर देता इंडिया

भारत से आँख-मिचौली रे!


-अमर कुशवाहा