Saturday, November 9, 2013

इबादात

आठो पहर जब भी कभी इबादात होती है

तब जाकर इश्क में कहीं इशारात होती है!

 

कुछ तो बात ज़रूर है उनकी निग़ाह में

यूँ ही नहीं जिंदगी से मुलाक़ात होती है!

 

सर्द मौसम और तिस पर तनहा सा दिल

यूँ ही नहीं महफ़िल में खिदमात होती है!

 

वो रौशनी से बन गये मेरी वीरानियों के

यूँ नहीं शमां के जलने से रात होती है!

 

अमरकैसे बयाँ करे उनके दर्द--सितम

यूँ ही नहीं किसी के ज़ख्मों में बात होती है!

-अमर कुशवाहा

पैमाना

आज बरसो कि महफ़िल मयखाना बने

नज़्म छेड़ो ऐसी कि कोई तराना बने!

 

उनके पायल की झनकार सुनायी दी है

दीदार उनका हो जाये तो अफ़साना बने!

 

हम तो बे-गैरत हैं करते क्यों परवाह?

डूब जाने दो इतना कि नया ज़माना बने!

 

समंदर की प्यास मुझे यहाँ ले आयी है

वो चाहते हैं कि सहरा में आशियाना बने!

 

आज साकी को रहा अभी होशअमर

कुछ तो जहाँ में सबर का पैमाना बने!


-अमर कुशवाहा

Thursday, July 18, 2013

तनहाईयाँ

किस मझधार में फँसा दिया मुझे बहलाकर

कि ख्व़ाब टूटे हैं मगर बहुत ही तड़पाकर!

 

हवायें कभी क़िश्ती को किनारे पहुँचाती थीं

तूफ़ा ने अंदर ही ढ़केला मुझे मुस्कराकर!

 

चीथड़े लिबास में जब जा पहुँचा शहर में

मायूसियों में बंद हुयीं थी किवाड़ें घबराकर!

 

दूजों को कभी खुद्दारी सिखलायी थी जिसने

नाकामियों से ढँक गया अब देखो शरमाकर!

 

आज है ख़ामोश लोगअमरजिसे कहतें हैं

ऐसी तनहाइयाँ घिरी हैं वहाँ पंख फड़फड़ाकर!

-अमर कुशवाहा

Saturday, July 13, 2013

अशांत

मैं अशांत हूँ या फ़िर चंचल

कहीं भी मन ठहरता नहीं!

असका दायरा बहुत ही बड़ा है

इसने घेरा डाल रखा है मेरे घर

बाहर तो इसका अधिकार सिद्ध है!

मैं निकलना चाहता हूँ

इस अशांत के पीछे छिपे सूनेपन से

समेट लेना चाहता हूँ

शान्ति की हर एक बूँद!

सागर सही,

एक कुआँ तो भर ही सकता है!

सागर ने कब बुझायी है

किसी की प्यास?

हर क्षण कितनी ही नदियों का

मीठा जल समेटता है अपने अंदर

किन्तु रह जाता है

फ़िर भी, खारा का खारा!

सोचो! कितने युगों से

वह प्यासा है?

मैं भी अब,

सागर हो गया हूँ!

-अमर कुशवाहा

Friday, June 14, 2013

अनामिका

 अधीर-नैन, प्रतीक्षारत, प्रिय-दर्शन

कंपित-अधर, लाल-कपोल, खुले-लोचन

लाज-आँचल, केश-सुशोभित, मन-चंचल

कुमकुम-सजे, स्वप्निल-ह्रदय, तन-शीतल

जेठ-प्रहर, अग्नि-लहर, जलता-वेग

निर्निमेष-पथ, आँच का नहीं खेद

उड़ती-धुंध, व्यस्त-समर, दृढ़-गान

सिंदूरी-माँग, प्रेम का संकल्पित प्रमाण

सुर-मधुर, लय-धीर, ताल-अकाट

दो सरिता, दो लहर, किन्तु एक पाट

साँझ-धुंधलका, नभ-लाल, क़दम-राग़

चमक मुख पर, लाली छायी, धुला विराग

दृग-जल, छलक-छलक बहे कपोल

बीती अमावास, घुला कर्ण सुन प्रिय-बोल!


-अमर कुशवाहा