आठो पहर जब भी कभी इबादात होती है
तब जाकर इश्क में
कहीं इशारात होती है!
कुछ तो
बात ज़रूर है उनकी निग़ाह में
यूँ ही
नहीं जिंदगी से मुलाक़ात होती है!
सर्द मौसम और तिस
पर तनहा सा दिल
यूँ ही
नहीं महफ़िल में खिदमात होती है!
वो रौशनी से बन
गये मेरी वीरानियों के
यूँ नहीं शमां के
जलने से
रात होती है!
‘अमर’ कैसे बयाँ करे
उनके दर्द-ए-सितम