Thursday, July 18, 2013

तनहाईयाँ

किस मझधार में फँसा दिया मुझे बहलाकर

कि ख्व़ाब टूटे हैं मगर बहुत ही तड़पाकर!

 

हवायें कभी क़िश्ती को किनारे पहुँचाती थीं

तूफ़ा ने अंदर ही ढ़केला मुझे मुस्कराकर!

 

चीथड़े लिबास में जब जा पहुँचा शहर में

मायूसियों में बंद हुयीं थी किवाड़ें घबराकर!

 

दूजों को कभी खुद्दारी सिखलायी थी जिसने

नाकामियों से ढँक गया अब देखो शरमाकर!

 

आज है ख़ामोश लोगअमरजिसे कहतें हैं

ऐसी तनहाइयाँ घिरी हैं वहाँ पंख फड़फड़ाकर!

-अमर कुशवाहा

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