Thursday, May 20, 2021

तैरती लाशें

कभी उनके भी नाम हुआ करते थे
जो अब बेनाम रह जाने को मज़बूर हो गये!

कभी उनमें वज़न भी हुआ करता था
उनके धर्म, उनकी जाति एवं उनके राज्य का
पर अब सब कुछ उथला-उथला था
इसलिये नदियाँ समेट नहीं पायीं उन्हें अपने अंदर
और फ़िर व्याकुल हो समंदर को सौंपने निकल पड़ीं!

अगर चाहतीं तो छिपा रख सकती थीं राज़
मानव-इतिहास के इस क्रूर अपराध का!
पर थक-हार कर कई बार उन्हें मजबूरी-वश
छोड़ना पड़ा कुछ को अपने किनारों पर
बिना किसी भौगोलिक वर्गीकरण के!

जहाँ सब चौंधिया जाते हो महामानव की चमक से
नदियों ने कभी नहीं छोड़ी अपनी प्रकृति
वह सब लघुमानवों को बहाये चली जा रही थी
बिना किसी से उसका नाम पूछे!

-अमर कुशवाहा
19.05.2021

Wednesday, May 12, 2021

नक़ाबी चेहरा

तन जो गोरा है तो क्या तुम्हारे मन में ही ख़राबी है
वादे सब है खोखले और तुम्हारे दावे भी जुलाबी हैं।

बस एक रंग को ही ओढ़कर खूब त्याग गढ़ते हो
रही बातें फ़कीरों सी मगर तुम्हारे शौक नबाबी हैं।

मुफ़्त में मिलती थी जो आब-ए-हवा हर एक तरफ़
जब साँसें उखड़ी तो पाया तुम्हारे क़िस्से हबाबी हैं।

चारों तरफ़ चिताओं की लपटें ही लपटें उठ रहीं
मंज़र पर परदा है और तुम्हारे चेहरे भी नक़ाबी हैं।

ज़न्नत नहीं नसीब तो क्या हुआ थे बादलों पर 'अमर'
अब पीठ है अकड़ी हुयी और तुम्हारे रास्ते सराबी हैं।

-अमर कुशवाहा
   १२.०५.२०२१