जो अब बेनाम रह जाने को मज़बूर हो गये!
कभी उनमें वज़न भी हुआ करता था
उनके धर्म, उनकी जाति एवं उनके राज्य का
पर अब सब कुछ उथला-उथला था
इसलिये नदियाँ समेट नहीं पायीं उन्हें अपने अंदर
और फ़िर व्याकुल हो समंदर को सौंपने निकल पड़ीं!
अगर चाहतीं तो छिपा रख सकती थीं राज़
मानव-इतिहास के इस क्रूर अपराध का!
पर थक-हार कर कई बार उन्हें मजबूरी-वश
छोड़ना पड़ा कुछ को अपने किनारों पर
बिना किसी भौगोलिक वर्गीकरण के!
जहाँ सब चौंधिया जाते हो महामानव की चमक से
नदियों ने कभी नहीं छोड़ी अपनी प्रकृति
वह सब लघुमानवों को बहाये चली जा रही थी
बिना किसी से उसका नाम पूछे!
-अमर कुशवाहा
19.05.2021