Saturday, July 25, 2020

अनकहे अल्फ़ाज


ख़्वाबों के टूट जाने का अपना भरम होता है

किसको कितना मिला अपना करम होता है!


जरा फ़रेब पर ही दिल बिखर जाता है

आख़िर शीशे का भी अपना धरम होता है!


कोई क़रार मगर राजदार ज़रूर है

सबका कोई अपना मोहतरम होता है!


कोई कैसे ख़ुद को रोके हर क़ज़ा से पहले

क़ातिल--निगाह का अपना शरम होता है!


जुबाँ तक आकर रुक जाये तो अच्छा हैअमर

अनकहे अल्फाजों का अपना मरम होता है!

-अमर कुशवाहा

Wednesday, July 22, 2020

पगडंडियाँ

एक लंबे अरसे से

राह तकती हैं पगडंडियाँ

बगल के खेतों ने अक्सर

उन्हें बिलखते ही देखा है!

 

!

आँसूं नहीं निकलते अब!

जब इंतज़ार की सीमा नहीं होती

सूख जाते हैं आँसूं अक्सर,

और बच जाती है केवल वेदना!

पर जब कभी भी वेदना का

पारावार चढ़ जाता है

तो निकल ही पडतें हैं आँसूं

और फ़िर धूल से मिलकर

चिपक पड़ते हैं

गाड़ियों के टायरों से!

 

पर इससे पहले कि पहुँच पायें

वो अपने प्रिय तक

हवा और धूप उन्हें सुखाकर

छोड़ देती है

किसी वीरान परती में!

कभी भूले से कुछ

पहुँच गये अपने मकाम तक,

तो अलग-थलग से दिखते हैं

चमकते संगमरमर पर!

और फ़िर उन्हें बुहारकर

फेंक आते हैं लोग

किसी गन्दी जगह पर!

 

एक समय था!

मैं भी लौटता था उन्हीं

पगडंडियों पर लोटने को

महाभारत के नेवले की तरह!

जो सुनहरा हो गया था!

 

मेरे गाँव की पगडंडी पर

बिखरी धूल में छिपी है

किसी की ममता,

त्याग और करुणा!

मैं भी सुनहरा हो गया था

उसी में लोट-लोट कर!

बस!

अब वहाँ लौट नहीं पाता!


-अमर कुशवाहा