Wednesday, July 22, 2020

पगडंडियाँ

एक लंबे अरसे से

राह तकती हैं पगडंडियाँ

बगल के खेतों ने अक्सर

उन्हें बिलखते ही देखा है!

 

!

आँसूं नहीं निकलते अब!

जब इंतज़ार की सीमा नहीं होती

सूख जाते हैं आँसूं अक्सर,

और बच जाती है केवल वेदना!

पर जब कभी भी वेदना का

पारावार चढ़ जाता है

तो निकल ही पडतें हैं आँसूं

और फ़िर धूल से मिलकर

चिपक पड़ते हैं

गाड़ियों के टायरों से!

 

पर इससे पहले कि पहुँच पायें

वो अपने प्रिय तक

हवा और धूप उन्हें सुखाकर

छोड़ देती है

किसी वीरान परती में!

कभी भूले से कुछ

पहुँच गये अपने मकाम तक,

तो अलग-थलग से दिखते हैं

चमकते संगमरमर पर!

और फ़िर उन्हें बुहारकर

फेंक आते हैं लोग

किसी गन्दी जगह पर!

 

एक समय था!

मैं भी लौटता था उन्हीं

पगडंडियों पर लोटने को

महाभारत के नेवले की तरह!

जो सुनहरा हो गया था!

 

मेरे गाँव की पगडंडी पर

बिखरी धूल में छिपी है

किसी की ममता,

त्याग और करुणा!

मैं भी सुनहरा हो गया था

उसी में लोट-लोट कर!

बस!

अब वहाँ लौट नहीं पाता!


-अमर कुशवाहा

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