Monday, August 21, 2017

एक बात मेरी एक रात मेरी

एक बात मेरी एक रात मेरी

जब तन्हाई में याद करोगी

एक ऐसा भी लड़का था

मुझे प्रेम जो करता था!

 

अभी तो चंचल यौवन है

कसा हुआ हर अंग-अंग है

नैन-नक्श सब तीखे हैं

केशों का रंग सुनहरा है!

जब ये यौवन ढल जायेगा

हर अंग ढ़ीला पड़ जायेगा

नैन-नक्श भी फीकें हो जायेंगे

केश सफ़ेद हो जायेंगे

फ़िर याद करोगी तन्हाई में

एक बात मेरी एक रात मेरी

एक ऐसा भी लड़का था

मुझे प्रेम जो करता था!

 

कुछ और साल जो बीतेंगे

हाथ तुम्हारे पीले होंगे

किसी की भाभी किसी की मामी

पल भर में तुम बन जाओगी!

रिश्ते होंगे चारों तरफ़

फ़िर भी ख़ुद को अकेला ही पाओगी

मन की सुनेगा बात कोई

ढूँढ उठोगी कोना-कोना

फ़िर याद करोगी तन्हाई में

एक बात मेरी एक रात मेरी

एक ऐसा भी लड़का था

मुझे प्रेम जो करता था!

 

धीरे-धीरे उमर ढलेगी

बच्चों के भी बच्चे होंगे

एक शाम अचानक ऐसे ही

घर में जब सिर्फ़ पोती होगी

चुपके से पीछे तुम्हारे जाकर

गले में बाहें डाल पड़ेगी!

कहा था दादी तुमनें एक दिन

मुझको कहानी सुनाओगी!’

उसको कहानी सुनानते-सुनाते

माथे को उसके सहलाओगी

प्यार भरी थपकी पाकर

जब नन्हीं गुड़िया सो जायेगी!

फ़िर याद करोगी तन्हाई में

एक बात मेरी एक रात मेरी

एक ऐसा भी लड़का था

मुझे प्रेम जो करता था!


-अमर कुशवाहा

कुछ गाँव से (संस्मरण)_"१०० डेज़"

"कुछ बातें और चंद लमहें मन के पटल पर सदा के लिए अंकित हो जाते हैं। समय प्रतिक्षण बदलता रहता है किंतु वह दृश्य, वह क्षण हर समय आँखों के सामने स्थिर ही रहता है। एक माँ का 'ममत्व', अनवरत नाचते मयूर के मोरपंख़ों सदृश अनेक रंगों में अपने बच्चों के जीवन में अनेकानेक रंग बिखेरता रहता है, और द्रष्टा को यह दृश्य गोचर भी होता है, किंतु ठीक इसके विपरीत बीसवीं सदी के पिता के हृदय में अपने संतान के प्रति प्रेमभाव होने के उपरांत भी यदा-कदा ही वह प्रेम बहुत कम बार ही छलक कर बाहर आ पाता था। अक्सर कारण सामाजिक ही होता था जहाँ पिता को ठीक कुम्हार के कठोर हथौड़े की तरह समझा जाता था जो समय-समय पर कभी कम कभी ज़्यादा चोट करके अपनी संतान रूपी घड़े को एक आकार प्रदान करने का प्रयत्न करता था। मेरे पिता जी भी इससे कुछ अलग नहीं थे। समाज का दबाव, जिम्मेंदारियों का बोझ और संयुक्त परिवार की उठापटक जैसे अनेक समकालीन मुद्दे थे, जिससे उनका संतान-प्रेम अक्सर कर्तव्यपूर्ति मात्र ही दिखा करता था। किंतु कई ऐसे बहुमूल्य क्षण भी आए जब उनका संतान-प्रेम मेरे ऊपर बरसा, सिर्फ़ बरसा ही नहीं...बल्कि भावनाओं का एक बाढ़ जैसा रहा।मैं कोई नौ-दस वर्ष की उम्र का तब रहा होऊँगा, उस दिन गाँव पर मैं, पिताजी, बड़ी माता जी (बड़क़ी अम्माँ )और दादी भर थी, माँ भैया और छोटे भाई को लेकर कहीं गयीं हुई थीं और उनका स्वास्थ्य सदा की तरह कुछ ख़राब था। पिताजी शाम को काम पर से वापिस आए और रात के भोजन के उपरांत टेलिविज़न पर हम लोग "१०० डेज़" नामक मूवी देख रहे थे, जो रोमांचक और डरावने दृश्यों से भरपूर था। हमारे गाँव में बिजली का आगमन एक ट्रान्सफ़ार्मर से होकर आता था, जो गाँव में ही मेरे घर से थोड़ी ही दूर पर था। कुछ दिन पहले आयी आँधी में उसका तार थोड़ा ढीला हो चला था, जिसकी वजह से बिजली आ-जा रही थी।ठंडक का मौसम था और मुझे ठंड लग गयी थी जिसकी वजह से मुझे बुखार था और पूरा शरीर दर्द से परेशान था। पिताजी ने दवाई दी, किंतु उसका कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ। और जब मुझे बिलकुल भी राहत नहीं मिला तब पिताजी मेरा सिर और पॉव दबाने लगे और ख़ुद थके होने के बावजूद तबतक दबाते रहे जब तक कि मैं उनकी गोद में सिर रखे सो नहीं गया। हो सकता है, पिताजी का मेरा सिर और पॉव दबाना बहुतों को कोई असाधारण घटना न लगे, किंतु मेरे लिए वह क्षण अद्वितीय था क्योंकि पिताजी के इस रूप से अबतक मैं अनजान रहा था।अक्सर वह सुबह जल्दी ही काम पर निकल जाया करते थे और शाम को देर से ही आते थे।माँ के सानिध्य और संयुक्त परिवार की वजह से पिताजी का ऐसा साथ तब तक नहीं मिला था।उनके साथ अकेला मैं रहा होऊँ ऐसा तबतक की उम्र में पहली बार हुआ था।आज जबकि मैं ख़ुद पिता बन चुका हूँ, मैं अब उनकी चिंता, तड़प का अहसास लगा सकता हूँ, और इक्कीसवी सदी का पिता होने की वजह से अपने पुत्र के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित कर लेता हूँ...किंतु पिताजी के समय यह कठिन हुआ करता था और हम उन्हें केवल कठोर ही समझते रहे। उस घटना के उपरांत अनेकों बार पिताजी के इस रूप के दर्शन हुए, किंतु उस "१०० डेज़" की रात मेरे लिए विलक्षण थी।मैंने आजतक "१०० डेज़" मूवी पूरी नहीं देखी! जब भी देखने की कोशिश की, पिताजी का वही प्रेम दिखने लगता है और फ़िल्म फिर से अनदेखा रह जाता है।"

कुछ गाँव से (संस्मरण)_“नई दुल्हन की होली”

होली का उत्तर-भारतीय परिवेश में बाकी के अन्य त्योहारों से थोडा-अधिक महत्व है, ऐसा मुझे प्रतीत होता हैI होली में ही सब अपनी बीतीं बातें भूलकर एक ही रंग में रंग जाते हैं- मस्ती और मिलन के रंग मेंI उम्र के ३०वें पड़ाव पर पहुंचतें हुए विगत वर्षों में होली के अनेक रंग देखे हैं मैंनेI दिल्ली जैसे महानगर की होली, गोरखपुर की होली, तमिलनाडु के शिवकाशी शहर के बड़ी हवेली के बीच अकेले बिना रंगों वाली होली भी, यदि सत्य कहूं तो होली की जो आत्मीयता है, वह मुझे अपने गाँव “गौरी” में ही मिली है, लाख-बार चाहा पर अभी तक कहीं और ढूंढनें में असफल ही रहा हूँI
यही कोई ९-१० वर्ष की उम्र रही होगी मेरीI कुछ दिनों बाद ही होली का त्यौहार थाI लेकिन हम लोगों की होली पिछले दस दिनों से चल रही थीI अलग-अलग तरह की पिचकारियाँ पापा पहले ही लेकर आ चुके थे, जो सबसे बड़ी पिचकारी थी, आदतन मेरे छोटे भाई साहब “गुड्डू” ने उस पर अपना अधिकार पहले ही जमा लिया थाI भैया अपनी पिचकारी को अपनी आदत के अनुसार सहेज कर अलमारी में छुपा चुके थेI रंगों की पूड़ियों का बंटवारा भी पहले ही हो चुका थाI उस समय तक बंदूक वाली पिचकारियाँ मेरे गाँव तक नहीं पहुँच पायी थीI लेकिन जिस पिचकारी ने मुझे सबसे ज्यादा आश्चर्यचकित किया था वह था बांस का बना किसी मोटे-बड़े इंजेक्शन सरीखा पिचकारी था, जिसे बनाने में गाँव के बच्चों को महारत हासिल थी, जिसमें रंग ज्यादा भरा जा सकता था और बहुत दूर से हमला भी किया जा सकता थाI बहुत चाह रही कि ठीक वैसी ही एक पिचकारी मेरी भी हो, पर चाह केवल चाह ही रहीI बड़े बाबूजी ने स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया और कहा कि यह पिचकारी छोटी हैसियत के लोग चलाते हैं, जिनके पास प्लास्टिक वाली पिचकारी खरीदनें के पैसे नहीं होतेI सच कहूँ तो पहली बार अहसास हुआ था, कि हैसियत बड़ी होने से ख्व़ाब टूट जाते हैंI आज तक खुद की बाँस से बनी पिचकारी नहीं चला सकाI
पिछले कई सालों की तरह इस बार की भी होली ठीक वैसे ही शुरू हुई थीI शहरों के विपरीत, हमारे गाँव में होली शाम को खेली जाती थीI हम-लोग तो खैर सुबह से ही धमा-चौकड़ी शुरू कर देते थेI लगभग तीन बजते ही, बच्चे और बूढ़े, खूँटी काका के दुआर पर इकठ्ठे हो गए, ढ़ोलक रामजी के गले से लटक गया तो मजीरा गुंडू कहार के हाथ की शोभा बढ़ाने लगा और होली के रंग में जोगीरा शुरू हो गयाI संतराम चाचा और घुरहू के घर से होते हुए टोली हमारे घर पहुंचीI उस समय गाँव पर हमारा संयुक्त परिवार हुआ करता था, बड़े-बाबूजी, बड़ी-अम्मा और उनके बच्चे, छोटे-बाबूजी, छोटी-अम्मा और उनके बच्चे, मम्मी-पापा और हम तीन भाई, और हमारी ईया (हम लोग दादी को ईया कहते थे)I पिचकारियों से हमला शुरू हो गया, गुलाल उड़ रहे थे, ढ़ोल-मजीरे के साथ जोगीरा की धुन जमी हुई थी और साथ ही साथ गुझियों, गरी और छुहारों का स्वाद भी मिल रहा थाI
उसी वर्ष हमारे गाँव के हरिशंकर यादव के परिवार के एक लड़के की शादी हुए कुछ-एक महीने ही हुए थेI नई दुल्हन की यह विवाहोपरांत पहली होली थीI जितना रोमांच गाँव की लड़कियों को उनके साथ होली खेलने का था, उससे कहीं ज्यादा रोमांच हम लड़कों को होली खेलनें के बहाने नई दुल्हन का चेहरा देखनें का थाI आज सुबह-सुबह ही हम बच्चों की योजना तैयार हो गयी थी, जरुरत थी तो बस उसपर अमल करने कीI जब होली का झुण्ड घर-घर घूमते हुए, हरिशंकर यादव के दुआर से होकर गुजरा, तो मैं, रिंकू, प्रमोद, सहदेव, हरिश्चंद्र, जगदीश, दिलीप, रामवृक्ष, मुन्नानाल आदि नई भौजी (भाभी) के मकान के आगे रुक गएI अन्दर सारी लडकियां नई भौजी के साथ होली खेलनें में मशगूल थींI यहाँ बाहर हमारी टोली ने दहाड़ लगाई- “भौजी फ़ाटक खोलो, हमहू होली खेलब”, पर ओशारे का दरवाजा नहीं खुला, बस खिड़की से तनिक भर झाँका-झांकी हो पायीI इधर हमारी टोली की दहाड़ और बढ़ चली थीI गलती से मुन्नालाल ने इस दहाड़ का अर्थ यह लगा लिया की हम सब शेर हैं और वह अकेले ही दहाड़ते हुए ओशारे के दरवाजे तक पहुँच गयाI अचानक बिजली की गति से दरवाजा खुला, दो-तीन हाथ बाहर निकले, और इससे पहले कि हम लोगों को इस अप्रत्याशित हमले के बारे में कुछ समझ आता, तबतक मुन्नालाल को अन्दर खींचकर दरवाजा बंद किया जा चुका थाI हम लोग और जोर से चिल्लाने लगे, तब जाकर दरवाजा खुला और मुन्नालाल धड़ाम से दरवाजे के बाहर ठीक वैसे ही रूप में गिरा, जिस रूप में उसने जन्म लिया था-निर्वस्त्र! उस बेचारे के शरीर का कोई भी ऐसा अंग नहीं बचा रह गया था, जिसे रंग से लाल न कर दिया गया हो! “लाल” मुन्नालाल ने रोते-रोते सारी लड़कियों और नई भौजी के पूरे खानदान के माँ-बहन को खूब जम कर याद कियाI इस प्रथम हार से ही हमारी टीम के पैर उखड़ चुके थेI सब मैदान छोड़ अपनी-अपनी इज्ज़त बचाकर भाग खड़े हुएI और बाद में हम लोगों में यह तय हुआ कि अब से किसी भी नयी भौजी के साथ होली खेलनें की कोशिश नहीं करेंगेंI
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कुछ गाँव से (संस्मरण)_"कोइला काका"

ठण्ड शुरू हुई नहीं कि गाँव के हर घर के दुआरे पर कौड़ा (अलाव) जलना शुरू हो जाता थाI उत्तर प्रदेश के हर गाँव की तरह हमारे गाँव ‘गौरी’ में भी कौड़ा तापना शुरू हो गया थाI यह वास्तव में कोई सामान्य बात नही थी, यह एक तरह से गाँव का ‘राउंड टेबल कांफ्रेंस’ होता था, बीच में आग जलती रहती थी और चारों और से घेर कर बच्चे-बूढ़े सब बैठ जाते बीड़ा परI बीड़ा, पुआल का बुना हुआ एक गद्देदार एवं गोलाकार आसन होता थाI गाँव-भर के हम जैसे बच्चे उसी आग में अपना-अपना आलू और गंजी डाल कर भुना करते थे, जिसका स्वाद आज भी जुबान पर बदस्तूर बरकरार हैI चाहे जितना भी ‘ओवन’ में ग्रिल्ड कर लो, पर भुने आलू का असली स्वाद तो तभी मिला करता थाI खैर, कौड़ा के चारों और बैठे लोगों में बतकही छिड़ जाती थी और फिर वह तब तक जारी रहती जब तक की अग्निदेव अपने हर अंग को राख से न ढँक लेंI बातों का क्या था, शायद ही कोई विषय अछूता रहा होI कभी खेती-किसानी की बातें, तो कभी लड़के-लड़कियों के विवाह की बात तो कभी किस्से-कहानियों का दौरI
उन्हीं कहानियों में से एक कहानी थी ‘कोइला काका’ की! वैसे कोइला काका का वास्तविक नाम ‘रामधन यादव’ था किन्तु अपने अद्भुत कोयला से मेल खाते रंग के कारण उनका उपनाम ‘कोइला काका’ ही पड़ गया, जिसने कालांतर में उनके असली नाम का ही अतिक्रमण कर लियाI लेकिन यह बात नहीं है कि कोइला काका बचपन से ही घने-श्याम रंग के रहें हो, किवदंतियों के अनुसार, वह बचपन में गोरे हुआ करते थे (कानी दादी के अनुसार), लेकिन किसी ख़ास किस्म की बीमारी के चलते उन्हें नीम की पत्तियां खाने का शौक लग गयाI एक-दो पत्तियों से शुरू होकर धीरे-धीरे तीन-चार मुट्ठी पतियाँ उनकी प्रतिदिन की खुराक हो गयीI जैसे-जैसे उनकी खुराक बढ़ती गयी ठीक वैसे ही उनका रंग उतरते- उतरते पूरा ही उतर गया, और वह कुछ इस तरह से उतरा कि घनी अँधेरी रातों में उनके कपड़ों को छोड़कर बाकी पूरे के पूरे वह अदृश्य हो जाते थेI उन पर बड़े-बुजुर्गों ने तगड़ी बंदिश लगा दी थी कि रात आठ बजे से सुबह पांच बजे तक वह कहीं बाहर या खेत-खलिहान न घूमेंI इस बंदिश के पीछे भी एक कहानी थीI हुआ यह की गाँव में झिनाई अहीर के बड़े लड़के का विवाह हाल ही में हुआ था और नई-नवेली दुल्हन के कानों को अभी कोइला काका की ख्याति की भनक भी न लग पायी थी, कि ऐसे ही एक दिन टटके सुबेरे उसने खेत में कोइला काका को देखा, तो भूत समझकर बड़े जोर से चीखी और बेहोश होकर गिर पड़ीI यह बंदिश उसी चीख की उपज थीI
कोइला काका के बारे में एक बात और मशहूर थी कि उन्हें कोई सांप नहीं काट सकता, और यदि गलती से किसी ने उन्हें काटने की हिमाकत भी की हो तो उसे मृत्यु का ग्रास बनना पड़ाI बकौल खूँटी काका, नीम का पत्ता फांकते-फांकते वह गोहुवन (कोबरा) से भी ज्यादा जहरीले हो गए थेI शुरू में मुझे ज्यादा तो विश्वास नही हुआ लेकिन लोगों का अटूट विश्वास देख कर मैं भी यही मानने लगाI और फिर न जाने कब आँख लग गयी, फिर कब आग बुझी, सुबह जब आँख खुली तो अपने-आपको भैया के साथ कमरे में बिस्तर पर पायाI

बड़ी हसरत थी

बड़ी हसरत है पर तेरी ज़िल मिल नहीं सकती
तूफ़ाँ तेज़ है बहुत और आँखें खिल नहीं सकती।

 

बड़ी मुश्किल से आये क़िस्मत में कुछ एक पल
मुट्ठी बंद है फिर भी रेत मुतकिल नहीं सकती।


बड़ा अदना हिस्सा हूँ मेरी कज़ा भी मुक़र्रर है
कि बिना देखें उन्हें ज़ान मुज्महिल नहीं सकती।


बड़ी तीख़ी सी है अब धूप और सहरा में मैं हूँ
किसी भी कुएँ से प्यास अब मिल नहीं सकती।


जाकर ख़ुदा के घरअमरकी इल्तज़ा रख दे
कि बे-मुतावज़ा हुये ख़ुदाई बहिल नहीं सकती।

-अमर कुशवाहा

किसी की याद

तनहा रात में अक्सर बदन में अगन आती है
पलकें मुंद जाती पर नींद मअन आती है।


दो घड़ी लेट कर सिलवटों को मैं सुनता रहा
कि किसकी है पाज़ेब ख्यालों में बसन आती है।


करवट बदल कर यूँ ही दीवारों पर पड़ी नज़र
कि चुपके से मेरी बाँहें तकिया सा बन आती हैं।


दूजे पहर में रात-रंग अब ख़ूब गहरा चढ़ा हुआ
किसकी तस्वीर में बिज़ली सा तपन आती है।


आख़िर उतर पलँग से खिड़कियाँ खोलताअमर
किसके होने के सबब में चाँदनी मगन आती है।


-अमर कुशवाहा

मेरा गाँव

पक्की सड़क से मुड़कर
गुजरते पगडंडियों से
उसी पीपल के पीछे से
छिपकर, झाँकता है
मेरा गाँव।
कितने पग गुजरते थे
उन पगडंडियों से,
कितनों ने पनाह पायी थी
पीपल के छाँव तले
धुप और बारिश के झींसे से,
गाँव निहारता रहता है
मेरे पग अब
पगडंडियों पर नहीं जाते,
शहर ने बांधकर
मुझे कैद कर रखा है।


-अमर कुशवाहा

मित्रश्रेष्ठ

गए सखा! हे मित्रश्रेष्ठ!
पूरी होगी साध
आज पाकर दर्शन
तुम्हारे चरण-कमलों की!
कुंड भर उठे हैं आँखों के
सूख चुके जो बिन दर्शन

जीर्ण-शीर्ण मानव के
माँस-विहीन शरीर को लख
अश्रुधार हैं छूट पड़े
आँखों से उस मित्र के
जिसके चरण-कमल से ही
गंगा का उद्भव हुआ था I

सभा थी शांत!
बिखर पड़ा था सन्नाटा!
हो सन्निपात, उस राजसभा में
केवल दो की ही आँखे तकतीं थी

उस ओर जिधर पसरा था

प्रेम का दर्पण जिसमें नित सबेरे
सखा सजा-संवरा करते हैं!
धो चरण सखा के
आलिंगन में ले सुदामा को
कृष्ण ने भरी सभा में
राजसिंहासन पर बिठाया
स्वयं थे बैठे समीप
सिंहासन के, किन्तु नींचे!

 

कहो सखा!
पूछ उठे माधव!
कहाँ थे रहते?
मेरे किस अपराध-वश
भूल गए थे गुरुभाई को?
मैं घिरा हुआ था राजभार से
किससे कहता? कैसे कहता?
बस मन ही मन मैं चुप रहता
मित्र तो केवल तुम ही थे!
ब्रज के वन जो घूमा करता
ऐसे स्वछंद कान्हा को
राजधर्म की जंजीरों में
बंधने का दर्द
आख़िर कौन सुनता?

कहते-कहते कृष्ण ने
जब मित्र के पैरों को देखा
अश्रुधार फिर बह निकले
पकड़ कर पाँव सुदामा के
लगे हाथों से सहलाने!
क्षमा करना सखा मेरे!
किन-किन कष्टों से आये तुम!
कैसे-कैसे दुर्दिन फिरे!
पूछ, मैं तुमसे ही प्रश्न कर बैठा!

केवल करने को मन संतुष्ट स्वयं का
धिक्कार मुझे है!

 

मित्रश्रेष्ठ कहतें हैं माधव
मुझ सुदामा को
जो गुरु-आश्रम में
वर्षा की रात

खा गया था
माधव का भी भाग!
जिसे दिया था गुरुमाता ने
बांटने को आधा-आधा!
यह सोच भर उठे नयन
आत्मग्लानि में सुदामा के!

बस कह उठे तुरंत
हे माधव! हे सखा! गुरुभाई!
अपराध नहीं तुम्हारा
किन्तु वह मेरा था, परिणामस्वरूप

ले भिक्षापात्र भटका हूँ मैं घर-घर
पाने को ठीक वही आधा भाग
जो खाया था मैंने गुरु-आश्रम में
वर्षा की रात तुम्हारे हिस्से का!

मैं मित्र नहीं! मैं श्रेष्ठ नहीं!
सच पूछो तो मानव ही नहीं!
जो मन में मेरे
मानवता रही थी!
उस आत्मग्लानि में अब तक तड़पा
क्षमा करो माधव मुझे!
नहीं! इसलिए नहीं कि

मैं तड़प रहा हूँ वर्षों से!
अपितु! क्षमा करो माधव, कि

अपनी आत्मग्लानि के कारण
मैंने मित्र-प्रेम से वर्षों तक
है तुमको वंचित रखा!
यह कह रो उठे सुदामा
फूट-फूट कर!
चकित सभा यह दृश्य देख!
दोनों में कौन मित्रश्रेष्ठ?

 

कहों सखा! पूछे माधव,
कैसी हैं भाभीश्री?
इतने वर्ष हैं बीत चुके अब तो

खेलते होंगे बच्चे आँगन में!
बताओ मुझे! क्या नहीं सुनाया?
बच्चों को किस्सा गुरु-आश्रम का
जहाँ हम सखा साथ-साथ पढ़ा करते थे!
क्या नहीं बताया?
कैसे मैं चंचल बस इधर-उधर ही
बाल-लीला किया करता था
और कैसे तुम सखा मेरे
ढँक मेरी चंचलता को
एक उदात्त भाव दिया करते थे!

क्या नहीं बताया? कैसे-कैसे?
एक चंचल-नटखट बच्चे को
बाँध दिया राजपाश से
करने को राज द्वारिका पर
बन द्वारिकाधीश!
ब्रज छूटा, छूटी राधा
छूटा यमुना तट भी
छूटी मईया, नन्दबाबा

छूटे संगी-सखा भी!
बस तीर लगे नन्हें शावक सा
इस राजभवन में, तड़पन में
मैं विचरण करता रहता हूँ!

बताओ मुझे! दिखाओ मुझे!
यह क्या है? बंधी पोटली?
क्यों छिपा रहे हो तुम
अपने इस गुरुभाई से?
क्या याद नहीं कई वर्ष-पूर्व
छिपा गए थे ऐसी ही पोटली
गुरु-आश्रम में वर्षा की रात
जो दिया था गुरु-माता नें!
हैं कसम तुम्हें मेरे नाम की!
जो पुनः दुहराकर वही कहानी
तुम्हारे दर्शन से मुझको
वर्षों तक वंचित रखोगे!

 

छूट गयी पोटली सुदामा से
लपक उठे झट से माधव,

खोले और बोले!

वाह-वाह! भेजा है भाभीश्री ने
चावल मुझको बहुत प्रेम से
भूख मेरी वर्षों की
अब जाकर पूरी होगी!
पहली मुट्ठी में भरकर
नेत्र-मूँद खा गए माधव
किंतु क्षुधा अभी भी
कुछ बची बाकी थी!
दूसरी मुट्ठी में भरकर
जैसे ही मुख के अन्दर निगले
सौंप चुके थे माधव
दो लोक सुदामा को!
थे प्रेम में डूबे इतने माधव
फिर भी भूख मिटी नहीं
पुनः पोटली में डाल हाथ
भर लिए तीसरी मुट्ठी भी!
जैसे हुए खाने को
हाथ पकड़ बैठी
लक्ष्मी-रूपा रुक्मणि!
कर उठीं विनय,
हे प्राणनाथ! हे जगन्नाथ!
कुल मिलाकर बस
अब एक ही लोक बचा है!
हे कृपासागर! करो कृपा!
रहने दें यह एक लोक
बाकी सारे मानव की!

ध्यान भंग! छूटे माधव!
उस प्रेम भरी तन्द्रा से
शुरू हुई पुष्प-वर्षा
आकाश से देवों के द्वारा!
स्मरण रहेगा जग को सदा

यह मित्र-प्रेम!

हे मित्रश्रेष्ठ!

-अमर कुशवाहा

शायद यही प्रेम है!

कई बार अनचाहे ही

बहुत कुछ कह देता हूँ

रुखे-सूखे शब्दों में

और तुम….बस

चुप-चाप सुन लेती हो

असहज होकर भी!

 

तुम भी तो कई बार

डाल ही देती हो

ज्यादा मिर्च सब्जी में

और दाल में अधिक नमक

मैं खा लेता हूँ...चुप-चाप

बिना मीन-मेख निकाले!

 

हम दोनों ख़ूब जानते हैं

रूखे-सूखे शब्द महत्वपूर्ण नहीं

और ही अधिक नमक मिली

दाल और सब्जी!

 

क्योंकि! कुछ देर बाद!

कुछ दिन बाद!

शब्द मीठे भी होंगे, और

नमक सधा हुआ!

शायद यही प्रेम है!

-अमर कुशवाहा

तुम्हारी देन

लहराते केश कभी मुक्त-छंद से

कभी जुड़ों की तुकबंदी से लय डाल देती हो

आँचल में भर कर गेयता कभी सर पर धरे

देखते-सुनते इन्हें मैं गीतकार बन गया!

 

अधर तुम्हारे कुमुदिनी, चाल गजगामिनी

हर कदम पर प्रीत का नया प्रसंग छेड़ती

अँगुलियों को मोड़-खोल विस्तार तुम बनाती जो

जोड़-तोड़ कर उन्हें मैं कहानीकार बन गया!

 

सृष्टि की संवेदना तुम्हारी पलकों पर टिकी

नख से लेकर शिख तक शिल्प का पर्याय तुम

वसंत से शिशिर के पसरे सामीप्य में

लड़ते-झगड़ते तुमसे मैं साहित्यकार बन गया!


-अमर कुशवाहा

आओ माँ_सुनानी है एक कहानी तुम्हें

आओ माँ!

बैठो! पास मेरे!

सुनानी है एक कहानी तुम्हे!

ठीक वैसे ही जैसे बचपन में

तुम मुझे सुनाती थी!

 

माँ हँस पड़ी!

चल हट!

तीसवाँ पार कर गया

पर अभी भी है

वैसा ही नटखट!

कहानी सुनाने चला है

वह भी माँ को!

समय कहाँ मिलता होगा तुम्हें

कि सोच सके

तू एक कहानी भी?

दशों - दिशा तेरी आँख हैं,

बीसों जगह तेरे हाथ!

 

मानता हूँ मैं माँ!

कि मै ज्यादा ही व्यस्त हूँ

अपनी दिनचर्या के काम में!

किन्तु एक प्रश्न पूछूँ?

उत्तर दोगी?

फ़िर तुम मुझे कैसे

सुनाया करती थी

हर दिन नई कहानी?

तुम भी तो व्यस्त थी!

बहुत ही व्यस्त थी

जब मैं छोटा हुआ करता था!

सबके लिए खाना बनाना

संयुक्त परिवार में

घर की साफ़-सफाई!

आँखें और हाथ तो तुम्हारे भी

बहुत जगह थे माँ

और उनसे भी ज्यादा काम!

 

माँ, बस केवल

थोड़ा सा मुस्कराई

जैसे जीत लिया हो

एक ही झटके में

सम्पूर्ण स्वर्ग को!

 

मेरेबाबू’!

माँ के लिये केवल

उसकी संतान ही होती है

उसकी सारी दिशायें

और उसके सारे हाथ!


-अमर कुशवाहा