Monday, August 21, 2017

तुम्हारी देन

लहराते केश कभी मुक्त-छंद से

कभी जुड़ों की तुकबंदी से लय डाल देती हो

आँचल में भर कर गेयता कभी सर पर धरे

देखते-सुनते इन्हें मैं गीतकार बन गया!

 

अधर तुम्हारे कुमुदिनी, चाल गजगामिनी

हर कदम पर प्रीत का नया प्रसंग छेड़ती

अँगुलियों को मोड़-खोल विस्तार तुम बनाती जो

जोड़-तोड़ कर उन्हें मैं कहानीकार बन गया!

 

सृष्टि की संवेदना तुम्हारी पलकों पर टिकी

नख से लेकर शिख तक शिल्प का पर्याय तुम

वसंत से शिशिर के पसरे सामीप्य में

लड़ते-झगड़ते तुमसे मैं साहित्यकार बन गया!


-अमर कुशवाहा

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