Monday, August 21, 2017

कुछ गाँव से (संस्मरण)_"कोइला काका"

ठण्ड शुरू हुई नहीं कि गाँव के हर घर के दुआरे पर कौड़ा (अलाव) जलना शुरू हो जाता थाI उत्तर प्रदेश के हर गाँव की तरह हमारे गाँव ‘गौरी’ में भी कौड़ा तापना शुरू हो गया थाI यह वास्तव में कोई सामान्य बात नही थी, यह एक तरह से गाँव का ‘राउंड टेबल कांफ्रेंस’ होता था, बीच में आग जलती रहती थी और चारों और से घेर कर बच्चे-बूढ़े सब बैठ जाते बीड़ा परI बीड़ा, पुआल का बुना हुआ एक गद्देदार एवं गोलाकार आसन होता थाI गाँव-भर के हम जैसे बच्चे उसी आग में अपना-अपना आलू और गंजी डाल कर भुना करते थे, जिसका स्वाद आज भी जुबान पर बदस्तूर बरकरार हैI चाहे जितना भी ‘ओवन’ में ग्रिल्ड कर लो, पर भुने आलू का असली स्वाद तो तभी मिला करता थाI खैर, कौड़ा के चारों और बैठे लोगों में बतकही छिड़ जाती थी और फिर वह तब तक जारी रहती जब तक की अग्निदेव अपने हर अंग को राख से न ढँक लेंI बातों का क्या था, शायद ही कोई विषय अछूता रहा होI कभी खेती-किसानी की बातें, तो कभी लड़के-लड़कियों के विवाह की बात तो कभी किस्से-कहानियों का दौरI
उन्हीं कहानियों में से एक कहानी थी ‘कोइला काका’ की! वैसे कोइला काका का वास्तविक नाम ‘रामधन यादव’ था किन्तु अपने अद्भुत कोयला से मेल खाते रंग के कारण उनका उपनाम ‘कोइला काका’ ही पड़ गया, जिसने कालांतर में उनके असली नाम का ही अतिक्रमण कर लियाI लेकिन यह बात नहीं है कि कोइला काका बचपन से ही घने-श्याम रंग के रहें हो, किवदंतियों के अनुसार, वह बचपन में गोरे हुआ करते थे (कानी दादी के अनुसार), लेकिन किसी ख़ास किस्म की बीमारी के चलते उन्हें नीम की पत्तियां खाने का शौक लग गयाI एक-दो पत्तियों से शुरू होकर धीरे-धीरे तीन-चार मुट्ठी पतियाँ उनकी प्रतिदिन की खुराक हो गयीI जैसे-जैसे उनकी खुराक बढ़ती गयी ठीक वैसे ही उनका रंग उतरते- उतरते पूरा ही उतर गया, और वह कुछ इस तरह से उतरा कि घनी अँधेरी रातों में उनके कपड़ों को छोड़कर बाकी पूरे के पूरे वह अदृश्य हो जाते थेI उन पर बड़े-बुजुर्गों ने तगड़ी बंदिश लगा दी थी कि रात आठ बजे से सुबह पांच बजे तक वह कहीं बाहर या खेत-खलिहान न घूमेंI इस बंदिश के पीछे भी एक कहानी थीI हुआ यह की गाँव में झिनाई अहीर के बड़े लड़के का विवाह हाल ही में हुआ था और नई-नवेली दुल्हन के कानों को अभी कोइला काका की ख्याति की भनक भी न लग पायी थी, कि ऐसे ही एक दिन टटके सुबेरे उसने खेत में कोइला काका को देखा, तो भूत समझकर बड़े जोर से चीखी और बेहोश होकर गिर पड़ीI यह बंदिश उसी चीख की उपज थीI
कोइला काका के बारे में एक बात और मशहूर थी कि उन्हें कोई सांप नहीं काट सकता, और यदि गलती से किसी ने उन्हें काटने की हिमाकत भी की हो तो उसे मृत्यु का ग्रास बनना पड़ाI बकौल खूँटी काका, नीम का पत्ता फांकते-फांकते वह गोहुवन (कोबरा) से भी ज्यादा जहरीले हो गए थेI शुरू में मुझे ज्यादा तो विश्वास नही हुआ लेकिन लोगों का अटूट विश्वास देख कर मैं भी यही मानने लगाI और फिर न जाने कब आँख लग गयी, फिर कब आग बुझी, सुबह जब आँख खुली तो अपने-आपको भैया के साथ कमरे में बिस्तर पर पायाI

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