हे राम!
इस अविरत काल-चक्र में
सदैव ही तुम श्रापित हो
मर्यादा में रहने को!
जब भी तुम्हारा होगा जन्म
पाओगे कैकेयी घर में
महलों में पलने वाले
भटकोगे वन-उपवन में!
जब भी तुम्हारा होगा जन्म
पाओगे शूर्पनखा-रावण
पल-पल पग-पग चलने वाली
अपहृत होगी अर्धांगिनी!
जब भी तुम्हारा होगा जन्म
पाओगे एक विशाल समुद्र
जैसे-तैसे पार करोगे
करना होगा युद्ध!
जब भी तुम्हारा होगा जन्म
पाओगे एक धोबी-धोबिन
सप्त-जन्म का मंगल बंधन
तोड़ उठोगे पल भर में!
जब भी तुम्हारा होगा जन्म
पाओगे एकाकी जीवन ही
कहने को तो चक्रवती
किन्तु कर्तव्य बहुत अधिकार नहीं!
हे मर्यादा पुरुषोत्तम!
इस अविरत काल-चक्र में
सदैव ही तुम श्रापित हो
मर्यादा में रहने को!
-अमर कुशवाहा
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