माँ अब भी
काजल लगा ही देती है
घर से निकलने से पहले
और फ़िर बेफिक्री से
घूमता रहता हूँ मैं
शामों– सहर!
जब वापिस आता हूँ
तो माँ फ़िर लग जाती है
नज़र उतारने में मेरी!
कितनी मासूम है माँ!
वह यह भी नहीं जानती
कि जो काजल उसने
लगाया था मेरे माथे पर!
उसके आगे झुकतीं हैं
ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियाँ!
फ़िर भी उतारती है नज़र
वापिस लौटने पर मेरी!
-अमर कुशवाहा
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