गुजरते पगडंडियों से
उसी पीपल के पीछे से
छिपकर, झाँकता है
मेरा गाँव।
कितने पग गुजरते थे
उन पगडंडियों से,
कितनों ने पनाह पायी थी
पीपल के छाँव तले
धुप और बारिश के झींसे से,
गाँव निहारता रहता है
मेरे पग अब
पगडंडियों पर नहीं जाते,
शहर ने बांधकर
मुझे कैद कर रखा है।
-अमर कुशवाहा
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