Monday, August 21, 2017

बड़ी हसरत थी

बड़ी हसरत है पर तेरी ज़िल मिल नहीं सकती
तूफ़ाँ तेज़ है बहुत और आँखें खिल नहीं सकती।

 

बड़ी मुश्किल से आये क़िस्मत में कुछ एक पल
मुट्ठी बंद है फिर भी रेत मुतकिल नहीं सकती।


बड़ा अदना हिस्सा हूँ मेरी कज़ा भी मुक़र्रर है
कि बिना देखें उन्हें ज़ान मुज्महिल नहीं सकती।


बड़ी तीख़ी सी है अब धूप और सहरा में मैं हूँ
किसी भी कुएँ से प्यास अब मिल नहीं सकती।


जाकर ख़ुदा के घरअमरकी इल्तज़ा रख दे
कि बे-मुतावज़ा हुये ख़ुदाई बहिल नहीं सकती।

-अमर कुशवाहा

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