Monday, August 21, 2017

आओ माँ_सुनानी है एक कहानी तुम्हें

आओ माँ!

बैठो! पास मेरे!

सुनानी है एक कहानी तुम्हे!

ठीक वैसे ही जैसे बचपन में

तुम मुझे सुनाती थी!

 

माँ हँस पड़ी!

चल हट!

तीसवाँ पार कर गया

पर अभी भी है

वैसा ही नटखट!

कहानी सुनाने चला है

वह भी माँ को!

समय कहाँ मिलता होगा तुम्हें

कि सोच सके

तू एक कहानी भी?

दशों - दिशा तेरी आँख हैं,

बीसों जगह तेरे हाथ!

 

मानता हूँ मैं माँ!

कि मै ज्यादा ही व्यस्त हूँ

अपनी दिनचर्या के काम में!

किन्तु एक प्रश्न पूछूँ?

उत्तर दोगी?

फ़िर तुम मुझे कैसे

सुनाया करती थी

हर दिन नई कहानी?

तुम भी तो व्यस्त थी!

बहुत ही व्यस्त थी

जब मैं छोटा हुआ करता था!

सबके लिए खाना बनाना

संयुक्त परिवार में

घर की साफ़-सफाई!

आँखें और हाथ तो तुम्हारे भी

बहुत जगह थे माँ

और उनसे भी ज्यादा काम!

 

माँ, बस केवल

थोड़ा सा मुस्कराई

जैसे जीत लिया हो

एक ही झटके में

सम्पूर्ण स्वर्ग को!

 

मेरेबाबू’!

माँ के लिये केवल

उसकी संतान ही होती है

उसकी सारी दिशायें

और उसके सारे हाथ!


-अमर कुशवाहा

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