मानव!
ईश्वर की सर्व्श्रेष्ठ रचना
नि:संदेह
एक वृक्ष ही है!
मानव-वृक्ष की जड़
होती है माँ!
सींचती रहती है अपने
रक्त से समय-समय पर!
मानव-वृक्ष का तना
होता है पिता
चट्टान सा खड़ा रखता है
जीवन के भयंकर अंधड़ में भी!
मानव-वृक्ष की टहनियाँ
होते हैं भाई-बहन
आकार तय करते है
उसके फैलाव का!
मानव-वृक्ष के पत्ते
होते हैं उसका घर!
जिसमे संश्लेषित होता है
निरंतर प्रेम-रुपी प्रकाश!
मानव-वृक्ष के उर्बरक-तत्व
होते हैं नात-हित-मित्र!
विकसित करते हैं मानव् को
अपनी क्षमतानुरूप!
मानव-वृक्ष के समस्त अंग
होते हैं अपने-अपने
साम्य में
सदैव से ही!
साम्य टूटा!
-अमर कुशवाहा
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